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१६६/पार्श्वपुराण
को समर्पित किए और प्रणाम करके बोला: हे नृपवर ! विपुलाचल पर्वत पर भगवान वर्धमान स्वामी का समोशरण आया है जिस की शोभा का वर्णन मैं मुख से नहीं कह सकता । इस प्रकार माली के वचन सुनकर राजा अत्यन्त हर्षित हुआ और अपने सभी वस्त्राभूषण उतारकर माली को दे दिए । आसन से उठ कर जिस दिशा में भगवान का समोशरण विराजमान था सात पैर चलकर परोक्ष नमस्कार किया । नगर में आनंद भेरी बजवाई । प्रातः सभी नगर - निवासियों के साथ समोशरण में पहुँच कर तीन प्रदक्षिणा दे नमस्कार किया । पश्चात् श्री गौतम गणधर को नमस्कार कर मनुष्य के कोठे में बैठ गया । राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि मैं भगवान पार्श्वनाथ का जीवनचरित्र सुनना चाहता हूँ, जिसके सुनने से भव्य जीवों के पाप क्षय होते हैं । ऐसा सुनकर गौतम गणधर ने कहा कि हे नृप श्रेणिक ! तुमनें बड़ा सुन्दर प्रश्न किया है । मैं पार्श्वप्रभु का चरित्र कहता हूँ | जिसमें मनुष्यभव सफल होता है सो तुम सुनो।
जिस प्रकार मगधनरेश के प्रति पार्श्वचरित्र गौतम गणधर ने कहा उसी के अनुसार मैं भी कहता हूँ | जैन कथा कल्पित नहीं होती है ऐसा निश्चय समझो, जैन वचन तो समुद्र के समान अगाध होते हैं | उसमें अर्थ पानी के समान होता है, जिसकी जितनी बुद्धि होती है अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर लेते हैं।
प्रथम अधिकार
जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र है। उसके आर्य खंड में एक सुरम्य देश है । उसके मध्य पोदनपुर नामका बड़ा सुन्दर नगर था । जो स्वर्ग पुरी के समान सुन्दर धन धान्य संपदाओं से युक्त था । वहां का राजा अरविन्द बहुत धर्मात्मा था । उसके विश्वभूति नामका ब्राह्मण मंत्री था । मंत्री की अनुन्धरी नाम की सुयोग्य पत्नी थी । इन दोनों के कमठ और मरुभूति दो पुत्र थे । जो विष और अमृत के समान थे । बड़ा कमठ स्वभाव से क्रूर अधर्मी और छोटा मरुभूति बड़ा धार्मिक सज्जन एवं कुशाग्र बुद्धि वाला था । पिता ने दोनों को बराबर शिक्षा दी, लेकिन कमठ में कोई अच्छे संस्कार नहीं आ पाये व मरुभति पढ लिख कर विद्वान चतुर और नीतिज्ञ हो गया । विश्वभूति ने दोनों की शादी कर दी । कमठ की वरुणा नाम की पत्नी थी और मरुभूति की सुन्दर रूपवती वसुन्धरा नाम की पत्नी थी । एक दिन विश्वभूति मंत्री आईना के सामने खड़ा चहरा देख रहे थे उन्हें मस्तक पर एक सफेद बाल दिख गया । वे सोचने लगे कि यह मृत्यु का सन्देश वाहक है अत: मुझे अपना आत्मकल्याण कर लेना चाहिए। उसने अपने दोनों पुत्रों को राजा अरविन्द को सौंप कर जिनदीक्षा ले ली । मुनि बन कर तपस्या करने लगा । राजा अरविन्द ने मरुभूति को अपना मंत्री
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