Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 171
________________ १७०/पार्श्वपुराण I अब निकलना मुश्किल है । अतः जन्म-भर के लिए अन्न-जल का त्याग कर संन्यास ले लिया । समाधिपूर्वक सन्तोष के साथ दिन बिताने लगा । इसी वन में कमठ का जीव था । जो भीलों के साथ रहकर चोरी करता था | आयु क्षीण होने पर मरकर कुर्कुट नाम का सर्प हुआ । हाथी को फँसा देख कर पूर्व जन्म का वैर विचार कर हाथी को डस लिया । हाथी ने शान्तिपूर्वक मरण कर, बारहवें स्वर्ग में शशिप्रभ नाम का देव हुआ । अन्तर्मुहूर्त में वह अवधिज्ञान से युक्त पूर्ण युवा हो गया । उसने अवधिज्ञान से सारा पूर्व भवजान लिया कि व्रतों के प्रभाव से हस्ती से मैं देव हुआ हूँ । सोलह सागर की आयु थी । वैक्रियक शरीर था । अनेक देवांगनाएं थी । उन सभी को साथ लेकर सबसे पहले वह अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजन वंदना के लिए गया । नंदीश्वर द्वीपों की वंदना की । नन्दन वनों में क्रीड़ा करता हुआ स्वर्गीय सुख भोगता रहा । तीसरा अधिकार इधर वह कुटकुट सर्प आयुपूर्ण कर पांचवें नरक पहुँचा और नारकीय यातनाएँ भोगने लगा । छेदन भेदन भूख प्यास सर्दी की वेदना आदि प्राकृतिक दुःख नरकों में थे । वह शशिप्रभ देव नाना सुखों को भोगता हुआ अपनी आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में पुस्कलावासी देश के लोकोत्तम नगर के राजा विद्युतगति और रानी विद्युतमाला के यहां अग्निवेग नाम का पुत्र हुआ । अग्निवेग स्वभाव से ही सौम्य, सम्पूर्ण शुभलक्षणों से युक्त बड़ा बुद्धिमान था । धीरे धीरे पुत्र बड़ा हुआ । यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ । एक दिन उसने समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन किए। उनसे धर्मश्रवण किया ! मुनिराजने कहा कि संयम से ही मानव जीवन की सफलता है । मानव जन्म संयम के लिए ही होता है । यह संयम अन्य गतियों में संभव नहीं है । अतः अग्निवेग को वैराग्य आ गया और वह मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर तपस्या करने लगा । ये मुनिराज आत्मा को निर्मल बनाने के लिए नाना तपों को तपते वनों की गुफा में बैठ आत्मचिंतन करते । एक बार एक पर्वत की गुफा में बैठकर ध्यान कर रहे थे कि इसी गुफा में वह कमठ का जीव जो पहले कुटकुट सर्प हुआ, फिर पाचवें नरक गया, वहां से निकल कर इसी गुफ़ा में अजगर सर्प हुआ मुनिराज को देखते ही पूर्व वैर के अनुसार मुनि को निगल लिया । अजगर द्वारा किये गये घोर उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन करते हुए समाधिपूर्वक मरण कर उन मुनि का जीव अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में विद्युतप्रभ नाम का देव हुआ । अणिमा महिमा आदि अष्ट ऋद्धियों के धारक इस देव ने २२ सागर की आयु पाई । नाना प्रकार के दिव्य सुखों को भोगता हुआ यह विद्युतप्रभ देव अकृत्रिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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