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१६८/पार्श्वपुराण
अवश्य दूंगा । ताकि कभी दुबारा अपराध न करें । जानते हो अन्याई दया के पात्र नहीं होते । मंत्री चुप रहे । राजा ने कमठ को बुलाया । उसका सिर मुंडवा कर काला मुंह किया । उसे गधे पर बैठाकर ढोल नगाड़ों के साथ सारे नगर में घुमाया
और राज्य सीमा के बाहर निकल जाने का आदेश दिया । कमठ नीचा मुख किए लज्जित होकर राज्य सीमा के बाहर एक तपस्वियों का आश्रम था उसमें पहुँचा । और दुखी होकर वहाँ के मठाधीश से प्रार्थना कर तपस्वी बन घोर तपस्या करने लगा । वहां पर कोई जटा रखाये, पंचाग्नि तपते थे । कोई खड़े खड़े घंटों तप करते थे । कमठ भी भस्म रमाये एक बहुत बड़ी शिला को हाथों पर उठाये घंटों खड़ा रहकर तप करने लगा।
मरुभूति ने सुना कि मेरा बड़ा भाई कमठ भूताचल पर्वत पर घोर तप कर रहा है । बड़ा दुखी है | उसे देखने के लिए एवं मनाने के लिए भूताचल पर्वत पर जाने का विचार किया और राजा से आज्ञा लेकर वह अकेला ही पर्वत पर गया । भाई को एक बड़ी शिला हाथों पर उठाये तप करते देखा तो विनम्र स्वर में कहा : भाई क्षमा कर देना । मैंने तो राजा से दंड देने को बहुत मना किया । पर राजा माना ही नहीं । इसमें मेरा क्या कसूर है? ऐसा कहकर पैर छूने के लिए जैसे ही वह नीचे झुका कमठ ने वह बड़ी शिला उसके मस्तक पर पटक दी और क्रोधावेश में पैर पटक कर दूर खड़ा हो गया । शिला के गिरते ही मरुभूति के प्राण पखेरु उड़ गये | वह वहीं मर गया । ये समाचार जब तापसियों ने सुने और उसकी लाश पड़ी वहां देखी तो मठाधीश ने उसे आश्रम से निकाल दिया । कहा यह पापी है । हिंसक है । हत्यारा है । निकालो इसको यहां से । कमठ वहां से भागकर भीलों के यहां रहकर चोरी आदि करके अपना काम चलाने लगा । वह एक नम्बर का चोर बन गया ।
उधर जब मंत्री मरुभूति बहुत दिनों तक लौट कर नहीं पहुंचे तो राजा अरविन्द बहुत चिन्तित हुए । एक दिन मुनिराज नगर में आए थे । वे अवधिज्ञानी थे । राजा ने उनसे राज मंत्री के न आने का कारण जानना चाहा । इससे मुनिराज से पूछा । मुनिराज ने सारा हाल राजा को कह दिया । जिसे सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ।
मरुभूति का जीव मरकर कुब्ज देश के सल्लकी बन में हस्ती हआ । उसका नाम बज्रघोष था । वह सचमुच ही बज्र के समान कठोर । डीलडाल में बहुत भारी था । उधर कमठ' की पत्नी वियोग एवं विरह में जलती हुई प्राण त्यागकर इसी बन में हस्तिनी हुई । बज्रघोष के साथ रमती रहती थी ।
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