Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 173
________________ १७२/पार्श्वपुराण चौथा अधिकार वहाँ से चय कर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशल देश की अयोध्यानगरी के राजा वज्रबाहु और उनकी प्रभाकरी रानी की कुक्षि से आनंदकुमार नाम का पुत्र हुआ । आनंदकुमार यथानाम तथागुण को चरितार्थ कर रहा था । सर्वगण सम्पन्न सबको आनंद देने वाला पुत्र धीरे धीरे बढ़ता हुआ नवयौवन को प्राप्त हुआ तब राजा ने अपना राज्यभार बेटे आनंद को सौंप कर आप बन में जाकर दीक्षा ले ली और तप करने लगे | आनंदकुमार ने अपने बलपौरुष से अनके राजाओं को अपने अधीनस्थ कर आप महा मंडलेश्वर बन गया । जिसे चार हजार राजा अपना राजा मानते उसकी आज्ञा शिरोधार्य करते थे । इस तरह राज्य करते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये । एक बार राजमंत्री स्वामिहित ने उसे बड़ी हितकारी बात कही, हे राजन यह वसन्तऋतु ऋतुराज कहलाती है इसमें देवलोग के देव बड़े उत्साह के साथ नंदीश्वर द्वीप की वंदना को जाते हैं । और यहां के नगर निवासी भी जिन मंदिर में बड़ा महोत्सव करके अष्टाह्निक महा पूजन करते हैं और महान पुण्य लाभ लेते हैं । यह बात सुनकर राजाने भी वसन्तोत्सव मनाने के लिए पूजन सामग्री लेकर बड़े ठाटबाट के साथ जिन मंदिर पहुँच कर बड़े भक्तिभाव से पूजन की । उसके मन में बार-बार एक शंका उठती थी । वहीं पर विपुलमति मुनिराज विराजमान थे । राजाने अपनी शंका का समाधान मुनिराज से चाहा । राजाने पूछा कि हे स्वामिन् बताइये कि मूर्तियां तो पाषाण व धातुकी अचेतन होती हैं | वे पूजक को पुण्य का फल कैसे देती हैं ? मुनिराज ने कहा राजन् मूर्ति तो नहीं देती हैं पर पूजक अपने परिणामों से पा जाता है । मूर्ति को देखकर उसके जो शुभ भाव बनते हैं वे पुण्य के कारण बनते हैं । कारण पाकर जीव के शुभ-अशुभ भाव होते हैं। जैसे स्फटिक मणि के पीछे जिस रंग का फूल रख देने पर वह मणि उसी रंग की दिखने लगती है । उसी प्रकार आपके जैसे भाव होंगे वैसा ही फल मिलेगा । वीतराग की मूर्ति देख कर वीतरागता के भाव बनना स्वाभाविक है । इस प्रकार मुनिराज ने अनके दृष्टान्तों से समझाया । एक विशेष बात यह बताई कि सूर्यमंडल में अकृत्रिम चैत्यालय है । उसमें जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा है । चक्रवर्ती प्रातःकाल और सायंकाल उसके दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं । यह बात सुनकर राजा ने भी प्रतिदिन सूर्य में स्थित प्रतिमा के दर्शन करने का कार्य प्रारंभ कर दिया । इस बात को देखकर नगर निवासी भी प्रतिदिन सूर्य को नमस्कार करने लगे । और आज तक यह प्रथा चली आ रही है । राजा ने ऐसा ही एक सूर्य के आकार का मंदिर बनवाया, प्रतिमा पधराई । उसे सूर्यमंदिर नाम दिया । इस प्रकार अनेक वर्षों तक राज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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