Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 163
________________ १६२/पार्श्वपुराण छप्पय । कमठ जीव तन छोरि, दुतिय कुरकट अहि जायौ ।। नरक पंचमैं जाय, आय अजगर तन पायौ । धूम प्रभामैं उपजि, भील अति भयौ भयानक | चरम नरक पुनि सिंघ, फेर पंचम भू-थानक ।। पसु जोनि भुंजि महिपाल नृप, देव जोतिषी अवतस्यौ ।। इहि बिध अनेक भवदुख भरे, बैरभाव-विषतरु फल्यौ ।।३१९।। दोहा । छिमाभाव-फल पासजिन, कमठ बैर फल जान || दोनौं दिसा विलोककै, जो हित सो उर आन ||३२०॥ सोरठा जीव जाति जावंत, सबसौं मैत्रीभाव करि ।। याको यह सिद्धत, बैरविरोध न कीजिये ||३२१।। सवैया । जो भगवान बखान करी धुनि, सो गुरु गौतमने उर आनी । तापर आइ ठई रचना कछु, द्वादस अंग सुधारस बानी ।। ता अनुसार अचारज संघ, सुधी बलसौं बहु काव्य बखानी । यों जिनग्रंथ जथारथ हैं, अजथारथ हैं सब और कहानी ||३२२।। दोहा । जितने जैनसिद्धांत जग, ते सब सत्यसरूप ॥ धर्मभावना हेत सब, हितमित सिच्छारूप ||३२३।। कलपित कथा सुहावनी, सुनते कौन अरत्थ ।। लाख दाम किस कामके, लेखन लिखे अकत्थ ।।३२४।। १ उक्तं चसत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं , क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ , सदा ममात्मा विदधातु देव ।।३२३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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