Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ १५४/पार्श्वपुराण इंद्रीजीत हिये संतोष । ते नर भोग लहैं व्रत-पोष ।। पूजा दान विमुख मदलीन । इंद्री-लुब्ध दया-गुनहीन ॥२२७।। दुराचार दुरध्यानी लोग | इनकौं प्रापत होहिं न भोग ।। समय विचारि पढ़ें जिनग्रंथ । पढ़ें पढ़ा जे सुभपंथ ।।२२८।। हितसौं धर्मदेसना कहैं । ते परभव पंडितपद लहैं ।। ग्यान-गरब हिरदै धर लेहिं । जिन-सिधांतकौं दूषन देहिं ।।२२९।। इच्छाचारी पढे असद्ध । ग्यान-विनय-वरजित जड़ बुद्ध ।। पढ़ने जोग पढ़ावै नाहिं । ऐसे मरि मूरख उपजाहिं ।।२३०॥ अनाचाररत आरंभवान | परकौं पीड़न करें अयान । पाप कर्म-रत धर्म न गहैं । ते परभवमैं रोगी रहैं ।।२३१।। परदुख देखि हरख उर धरै । परवनिता परधन जो हरै ।। नर-पसु जीव बिछोहैं जोय । सो पुत्रादि वियोगी होय ||२३२।। नीच कर्मरत करुना नाहिं । हाथ पांव छेर्दै छिनमाहिं ।। जे परको उपजाबैं पीर । ते नर पार्दै विकल सरीर ||२३३।। जो मिथ्यामत-मदिरा पियें । पापसूत्रकी सरधा हियें ।। धर्म निमित्त जीव-बध करें । महा कषाय-कलुषता धरै ।।२३४।। नास्तिक मती पाप-मग गहैं । ते अनंत संसारी रहैं | रतनत्रय धारी मुनिराज | आगम ध्यानी धर्मजहाज ||२३५।। इच्छारहित घोर तप करें । कर्म नास करि भवजल तिरै ।। उत्तम देव नमैं सिरनाय । पूजै परम साधुके पाय ||२३६।। साधरमी-बत्सल मुनि-प्रीत | उत्तम गोत बंधै इहि रीत ।। जे जिन जती जिनागम जान | नमैं नहीं सठ करि अभिमान ।।२३७।। मानैं नीच देव गुरु धर्म । ये सब नीच गोतके कर्म । जिनके हिय रमै वैराग | धारै संजम तिसना त्याग ।।२३८।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175