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१४२/पार्श्वपुराण
अविनासी जिसमाहिं, सदा पंच गुन पाइए | इंद्रीगोचर नाहिं, अवधि ग्यानसौं जानिए ॥१०२।।
दोहा। वरन पांच रस पांचमैं, एक एक ही होय ।। एक गंध दो गंधमैं, आठ फरसमैं दोय ||१०३।। ये परमानू पंचगुन, सात बंधमैं जान || वरनादिक जे बीस हैं, ते गुन जात बखान ||१०४|| आगे पुद्गल बंधके, सुनो भेद खट सोय || सरधा करतें समझतें, संसय रहै न कोय ||१०५।।
चौपाई। प्रथम भेद अतिथूल बखान । दुतिय थूल संग्या उर आन || तृतिय थूल सूच्छम सरदहो । सूच्छन थूल चतुर्थम गहो ||१०६।। पंचम सूच्छम नाम गिनेह । छट्ठम अति सूच्छम खट येह ।। अब इनको बरनन बिरतंत । सुनौ एक मनसौं मतिवंत ||१०७।। खंडखंड की. जे बन्ध । फेर न मिलैं आपसौं संध || माटी ईंट काठ पाखान । इत्यादिक अतिथूल बखान ।।१०८।। छिन्न भिन्न हो फिर मिल जाहिं । ऐसे पुद्गल जे जगमाहिं ।। घृत अरु तेल जलादिक जान | ये सब थूल कहे भगवान ।।१०९॥ देखत लगैं दिष्टिसौ थूल । करमैं गहे जाहिं नहिं मूल || धूप चांदनी आदि समस्त । जान थूल ते सूच्छम वस्त ।।११०।। आंखनसौं दीखै नहिं जेह | चारौं इंद्रीगोचर तेह ।। विबिध सपर्स सब्द रस गंध । सूच्छम थूल जान ते बंध ||१११।। नाना भांति वर्गना भिंड | कारमान परमानू पिंड || काहू इंद्रीगोचर नाहिं । ते सूच्छम जिन-सासन माहिं ।।११२।। कर्मवर्गना सो ही कहा । जो अति ही सूच्छम सरदहा ।। दुनुक आदि परमानू बंध । सो सूच्छम-सूच्छम सुन बंध ||११३।।
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