Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 144
________________ नौवाँ अधिकार/१४३ खट प्रकार पुद्गल इहि भाय । मुख्य गौन सबमैं गुन थाय ।। इनहीसौं निर्मापत लोक । और न दीखै दूजौ थोक ||११४|| सब्द बंध छाया तम जान । सूच्छम थूल भेद संठान ।। अरु उदोत आतप बहु भाय । यह दस-बिध पुद्गल-परजाय ||११५|| जब जड़ जीव चलै सतभाय । धर्म दरब तब करै सहाय || जथा मीनको जल आधार | अपनी इच्छा करत विहार ||११६|| यों ही सहज करै थित सोय । तब अधर्म सहकारी होय ।। ज्यों मगमैं पंथीकौं छाहिं । थितिकारन है बलसौं नाहिं ||११७।। जो सब द्रव्यनकौं अवकास । देय सदा सो द्रव्य अकास ।। ताके भेद दोय जिन कहे । लोक अलोक नाम सरदहे ||११८।। जहं जीवादि पदारथवास । असंख्यात परदेस निवास ॥ लोकाकास कहावै सोय | परै अलोक अनंता होय ||११९।। लोकप्रदेस असंखे जहां । एक एक कालाने तहां ।। रतनरासि-वत निवसैं सदा । द्रव्यसरूप सुथिर सर्वदा ||१२०॥ बरतावन लच्छन गुन जास | तीनकाल जाकौ नहिं नास || समय घड़ी आदिक बहुभाय | ये व्यवहारकाल परजाय ||१२१|| पहले कह्यौ जीव अधिकार । और अजीव पंचपरकार || ये ही छहौं द्रव्य-समुदाय | कालबिना पंचासतिकाय ||१२२।। दोहा । बहु परदेसी जो दरव, कायवंत सो जान | तातें पचअथिकाय हैं, काय काल बिन मान ||१२३।। सवैया छंद । जीवरु धर्म अधर्म दरव ये, तीनौं कहे लोक-परवान ।। असंख्यात परदेसी राजै, नभ अनंत परदेसी जान ।। संख असंख अनंत प्रदेसी, त्रिबिधरूप पुद्गल पहिचान || एक प्रदेस धरै कालानू, तातैं काल कायबिन मान ||१२४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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