Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 148
________________ नौवाँ अधिकार/१४७ बंध अभावै मुक्ति है, यह जानै सब लोय ।। बंध हेत बरतें जहां, मुक्ति कहांतें होय ||१५४।। पच्छिम भान न ऊगवै, अगनि न सीतल होय ।। जथाजात जिनलिंगबिन, मोख न पावै कोय ||१५५।। छप्पय । धन्य धन्य ते साधु, देह-भव-भोग विरच्चे । धन्य धन्य ते साधु, आप अपने रस रच्चे || धन्य धन्य ते साधु, पीठ जगकी दिसि कीनी । धन्य धन्य ते साधु, दिष्टि सिवसम्मुख दीनी ।। तजि सकल आस बनवास वस, नगन देह मद परिहरे । ऐसे महंत मुनिराज प्रति, हाथ जोर हम सिर धरे ।।१५६।। पंच महाव्रत दुद्धर धरैं । सम्यक पांच समिति आदरै ।। तीन गुपति पालैं यह कर्म । तेरहबिध चारित मुनिधर्म ||१५७।। यातै सधै मुक्तिपद खेत । गिरही-धर्म सुरग सुख देत || सो एकादस प्रतिमारूप । ते बरनों संछेप सरूप ||१५८।। पंच अदंबर तीन मकार | सात व्यसन इनकौ परिहार || दरसन होय प्रतिग्या युक्त । सो दरसन-प्रतिमा जिन उक्त ||१५९।। ढाल । श्रीगुरु सिच्छा साभलौ, (ग्यानी) सात व्यसन परित्यागौरे ।। ये जगमैं पातक बड़े, (ग्यानी) इन मारग मत लागौरे ।।१६०|| जूवा खेल न मांड़िये, (ग्यानी) जो धन धर्म गवाँवरे || सब विसननको बीज है, (ग्यानी) देखता दुख पावैरे ।।१६१।। रजवीरजसैं नीपजै, (ग्यानी) सो तन मास कहावैरे ।। जीव हते बिन होय ना, (ग्यानी) नांव लियां घिन आवैरे ||१६२।। सड़ि उपजै कीड़ां भरी, (ग्यानी) मद दुर्गंध निवासैरे ।। छीयांसौं सुचिता मिटै, (ग्यानी) पीयां बुद्ध विनासैरे ||१६३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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