Book Title: Parshvapurana
Author(s): Bhudhardas Kavi, Nathuram Premi
Publisher: Sanmati Trust Mumbai

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Page 145
________________ १४४/पार्श्वपुराण दोहा । काल काय बिन तुम कह्यौ, एकप्रदेसी जोय । पुद्गल परमानू तथा, सो सकाय क्यों होय ||१२५।। सवैया । अलख असंख्य दरव कालानू, भिन्नभिन्न जगमाहिं बसाहिं ।। आपसमाहिं मिलैं नहिं कबहीं, तातें कायवंत सो नाहिं ।। रूप सचिक्कनतें परमानू, ततखिन बंधरूप हो जाहिं ।। यों पुद्गलकौं कायकलपना, कही जिनेसुरके मतमाहिं ।।१२६।। जितने मान एक अविभागी, परमानू रोकै आकास || ताकौ नाव प्रदेस कहावै, देय सर्व दरवनकौं बास || तहां एक कालानू निवसै, धर्म अधर्म प्रदेस निवास ।। रहैं अनंत प्रदेस जीवके, पुद्गलबंध लहैं अवकास ||१२७।। पोमावती। धर्म अधर्म कालअरु चेतन, चारों दरव अरूपी गाये ।। तातें एक अकास-देसमैं, प्रभु सबके परदेस समाये ।। मूरतवंत अनंते पुद्गल, ते उस नभमैं क्योंकर माये ।। यह संसय समझाय कहो गुरु, दास होय हम पूछन आये ||१२८।। सोरठा । बहु प्रदीप परकास, जथा एक मंदिर विषै ॥ लहै सहज अवकास, बाधा कछु उपजै नहीं ||१२९।। दोहा। त्यों ही नभ परदेसमैं, पुद्गल बंध अनेक || निराबाध निवसैं सही, ज्यों अनंत त्यों एक ||१३०।। जो कर्मनको आगमन, आस्रव कहिये सोय ।। ताके भेद सिद्धांतमैं, भावित दरवित दोय ||१३१।। चौपाई। मिथ्या अविरत जोग कषाय । और प्रमाद दसा दुखदाय ।। ये सब चेतनके परिनाम | भावास्रव इनहीको नाम ||१३२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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