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१४०/पार्श्वपुराण
अडिल्ल । यह अनादि संसार, जीवकी भूल है । इस कारजमैं और, हेतु नहिं मूल है ।। तौ असुद्ध नयन्याय, जीव जगरूप है । दिव्य दृष्टिसौं देख, सबै सिवभूप है ||८४||
दोहा । भये कर्म-संजोगते, संसारी सब जीव । साधनबल जीतें करम, तब यह सिद्ध सदीव ||८५||
अडिल्ल। अष्ट गुणातमरूप, कर्ममल मुक्त हैं । थिति उतपत्ति विनास, धर्मसंजुक्त हैं ।। चरम देहतें कछुक, हीन परदेस हैं । लोकअग्रपुर बसैं, परम परमेस हैं ।।८६।।
दोहा । अथिर अर्थपरयाय जो, हानिवृद्धमय रूप । तिसमैं सिद्ध बखानिये, उतपति-नाससरूप ||८७।। ग्येय त्रिबिध परनति धरै, ग्यान तदाकृत भास । यों भी सिवपदमैं सधै, थित उतपत्ति विनास ||८८|| अथवा सब परनति नसे, भई सिद्धपर्याय ।। सुद्धजीव निहचल सदा, यों तीनौं ठहराय ||८९।।
अडिल्ल । बरन पांच रस पांच, गंध दो लीजिए । आठ फरस गुनजोर, बीस सब कीजिए ।। जीव वि. इनमाहिं, एक नहिं पाइए । यातें मूरति हीन, चिदातम गाइए ।।९०।। जगमैं जीव अनादि, बंध-संजोगरौं । छूट्यौ कबही नाहिं, कर्म-फल-भोगते ।।
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