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चौथा अधिकार/६७
ख्याति लाभ पूजा सब छंड | पंच करनकौं दीजै दंड || सो तपधर्म कह्यौ जगसार । अनसनादि बारह परकार ||१४२।। संजमधारी व्रती प्रधान । दीजै चउबिध उत्तम दान । तथा दुष्टविकलप परिहार | त्यागधर्म बहु सुखदातार ||१४३।। बाहिज परिग्रहकौं परित्याग । अंतर ममता रहै न लाग ।। आकिंचन यह धर्म महान । सिव-पद-दायक निहचै जान ||१४४।। बड़ी नारि जननी सम जान | लघु पुत्री सम बहिन बखान ।। तजि विकार मन बरतै जेह । ब्रह्मचर्य परिपूरन एह ।।१४५।।
दोहा । सोलह कारन भावना, भावै मुनि आनंद | तिनको नाम सरूप कछु, लिखौं सकल सुखकंद ।।१४६।।
चौपाई। आठ दोष मद आठ मलीन । छै अनायतन सठता तीन || ये पचीस मलवरजित होय । दर्सन-सुद्धि कहावै सोय ||१४७।। रत्नत्रयधारी मुनिराय । दर्सन-ग्यान-चरित-समुदाय || इनकी विनयविर्षे परवीन । दुतिय भावना सो अमलीन ||१४८।। सीलभार धारै समचेत । सहस अठारह अंग समेत || अतीचार नहिं लागै जहां । तृतिय भावना कहिये तहां ||१४९॥ आगम-कथित अर्थ अवधार | जथासकति निजबुधि अनुसार || करै निरंतर ग्यान अभ्यास । तुरिय भावना कहिये तास ||१५०॥
दोहा।
धर्म धर्मके फलविषै, बरतै प्रीति विसेख ।। यही भावना पंचमी, लिखी जिनागम देख ||१५१।।
चौपाई। ओषधि अभय ग्यान आहार | महादान यह चार प्रकार || सक्ति समान सदा निरबहै । छठी भावना धारक वहै ||१५२।।
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