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१३६/पार्श्वपुराण
चौपाई। सैनी जीव जगतमैं जेह । दसौं प्रानसौं जीवें तेह । मनसौं रहित असैनी जात । ते नौप्रान धरै दिनरात ||४२।। कान बिना चौइंद्री जिते । आठ प्रानके धारक तिते ।। तेइंद्रीके आँख न भनी । तातें सात प्रानके धनी ॥४३॥ नासा बिन वेइंद्री जीव । तिन सबके षट प्रान सदीव ।। जीभ-वचनवर्जित तन तास । एकेंद्री चउ प्राननिवास ||४४||
दोहा । इहिबिध जीव अजीव सब, तीनकाल जगथान || सत्तासुख अवबोध चित, मुकत-जीवके प्रान ||४५।।
चौपाई। दोप्रकार उपयोग बखान । दरसन चार आठ बिथ ग्यान ।। चच्छु अचच्छु अवधि अवधार । केवल ये सब दरसन चार ।।४६॥ अब सुन वसुबिध ग्यान-विधान । मति-सुत-अवधि ग्यान अज्ञान ।। मनपर्जय केवल निरदोख । इनके भेद प्रतच्छ परोख ।।४७।। मति श्रुति ग्यान आदिके दोय । ये परोख जानैं सब कोय ।। अवधि और मनपरजय ग्यान | एकदेस परतच्छ प्रमान ||४८।। केवलग्यान सकल परतच्छ । लोकालोक-विलोकन दच्छ ।। जहां अनंत दरब-परजाय । एक बार सब झलक आय ।।४९।। दरसन चार आठ बिध ग्यान । ये व्यवहार चिहन जी जान ।। निहचैरूप चिदातम येह । सुद्ध ग्यान दरसन गुनगेह ||५०।। कल्पित असदभूत व्यवहार । तिस नय घटपटादि कर्तार ।। अनुपचरित अजथारथरूप । कर्मपिंडकरता चिद्रूप ||५१।। जब असुद्धनिहचै बल धरै । तब यह रागदोषकौं हरै ।। यही सुद्धनिहचै कर जीव । सुद्ध भाव करतार सदीव ||५२।।
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