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सामान पुरुष जग जैसे । हम खोये ये दिन ऐसे ॥ संजम-बिन काल गमायौ । कछु लेखे मैं नहिं लायौ ॥९१||
सातवाँ अधिकार / १११
ममतावस तप नहिं लीनौं । यह कारज जोग न कीनौं || अब खाली ढील न कीजै । तारित चिंतामनि लीजै ॥९२॥
दोहा | भोगविमुख जिनराज इमि, सुधि कीनी सिवथान || भावैं बारह भावना, उदासीन हितदान ॥९३॥
चौपाई |
द्रव्य सुभाव बिना जगमाहिं । पर ये रूप कछू थिर नाहिं || तन धन आदिक दीखत जेह । काल-अगनि सब ईंधन तेह ||९४॥
भव-वन-भ्रमत निरंतर जीव । याहि न कोई सरन सदीव || ब्योहारै परमेठी-जाप । निहचै सरन आपकौं आप || ९५ ॥
सूर कहावै जो सिर देय । खेत तजै सो अपजस लेय || इस अनुसार जगतकी रीत । सब असार सब ही विपरीत ॥९६॥
तीनकाल इस त्रिभुवन माहिं । जीव संगाती कोई नाहिं || एकाकी सुख दुख सब सहैं । पाप पुन्य करनीफल लहैं ||९७||
जितने जग संजोगी भाव । ते सब जियसौं भिन्न सुभाव || नितसंगी तन ही पर सोय । पुत्र सुजन पर क्यों नहिं होय ||९८ ॥
असुचि अस्थि-पिंजर तन येह । चाम-वसन - बेढ्यौ घिनगेह || चेतनचिरा तहां नित रहै । सो बिन ग्यान गिलानि न गहै ॥९९॥
मिथ्या अविरत जोग कषाय । ये आस्रव कारन समुदाय || आस्रव कर्म-बंधकौ हेत । बंध चतुरगतिके दुख देत ||१००||
समिति गुपति अनुपेहा धर्म । सहन परीषह संजम पर्म ॥ ये संवर कारन निरदोख । संवर करै जीवको मोख ||१०१||
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