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६६ / पार्श्वपुराण
अंतरायकर्मसेती उपजै अलाभ दुख, सपत चारित्र - मोहनीके बल जानिये || नगन निषिद्या नारि मान सनमान गारि, जांचना अरति सब ग्यारै ठीन ठानिये । एकादस बाकी रहीं वेदनी उदसौं कहीं, बाइस परीषा उदै, ऐसे उर आनिये ॥१३३॥
अड़िल्ल । एक बार इनमाहिं, एक मुनिकै कही । सब उनीस उतकृष्ट, उदय आवैं सही | आसन सयन विहार, दोय इनमाहिंकी । सीत उसनमैं एक, तीन ये नाहिंकी ॥१३४॥
दोहा । अब दसलच्छन धर्म के, कहूं मूल दस अंग । जे नित श्री आनंद मुनि, पालत हैं सरवंग || १३५||
चौपाई |
बिनादोष दुर्जन दुख देय । समरथ होय सकल सह लेय || क्रोध कषाय न उपजै जहां । उत्तम छिमा कहावै तहां ॥१३६॥
आठ महामद पाय अनूप । निरभिमान बरतै मृदुरूप ॥ मानकषाय जहां नहिं होय । मार्दव नाम धरम है सोय ॥१३७॥
जो मनचितै सो मुख कहै । करै कायसौं कारज वहै ।। मायाचार न उर पाइये । आर्जव धर्म यही गाइये ||१३८॥
बोलै वचन स्वपर हितकार । सत्यस्वरूप सुधा-उनहार ॥ मिथ्यावचन कहै नहिं भूल । सोई सत्य धर्मतरुमूल ॥१३९॥
पर- कामिनि पर दरबमझार । जो बिरक्त बरतै छल छार ॥ अंतर सुद्ध होय सरवंग । सोई सौच धर्मकौ अंग || १४०||
मन समेत जो इंद्री पंच । इनकौं सिथिल करै नहिं रंच ॥ स थावरकी रच्छा जोय । संजम धर्म बखान्यौ सोय || १४१ |
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