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८८/पार्श्वपुराण
गर्भ बसैं पर गर्भतें, बरतें भिन्न सदीव ।। घटतें घटवरती गगन, क्यों नहिं भिन्न अतीव ||१३८॥
चौपाई। तब जिन पुन्यपवनसे हले | चउबिध सुरके आसन चले ।। चिहन देख इंद्रादिकदेव । जानो अवधिज्ञान-बल भेव ||१३९।। जिनवर आज गर्भ अवतरे । यह विचार उर आनंद भरे ।। चढ़ि विमान परिवार समेत | चले गर्भकल्यानक हेत ||१४०।। जयजयकार करत बहुभाय । उच्छव-सहित पिताघर आय || मातपिता आसन पर ठये । कंचन-कलस नहावत भये ||१४१।। गर्भमध्यवरती भगवान । प्रनमैं देव धरो मन ध्यान ।। गीत निरत बाजित्र बजाय | पूजा भेंट करी सिर नाय ||१४२॥ यों सुरगन सब साधि नियोग | गये गेह करि कारज जोग ।। इन्द्रराजको आयस पाय । रुचकवासिनी देवी आय ||१४३।। जथाजोग सब सेवा करैं । छिन छिन जिन-जननी-मन हरें । रुचक-दीप तेरहमो जहाँ । रुचकनाम पर्वत है तहाँ ।।१४४।। सो चौरासी सहस प्रमान । इतने जोजन उन्नत जान || इतनो ही विस्तीरन धार | दीप मध्यसों बलयाकार ||१४५।। ताके सिखर कूट बहु लसैं । दिसाकुमारी तिनमैं बसैं ।। ते सब सेवन आ4 माय । यह नियोग इनको सुखदाय ||१४६।।
कुसुमलता। आईं भक्ति नियोगिनि देवी, जिन जननीकी सेव भजै ।। कोई न्हान-विलेपन ठानें, कोई सार सिंगार सजै ।।१४७।। कोई भूषण वसन समप्पैं, कोई भोजन सिद्ध करें ।। कोई देय तंबोल रवाने, कोई सुंदर गान करें ।।१४८।।
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