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पाँचवाँ अधिकार/८९
कोई रतन सिंहासन थापैं, कोई ढालैं चमर बरो || कोई सुन्दर सेज बिछा, कोई चारैं चरन करो ||१४९।। कोई चन्दनसौं घर सींचें, सारे महल सुवास करी ।। कोई आंगन देय बुहारी, झारै फूल-पराग परी ||१५०|| कोई जलक्रीडा कर रंजै, कोई बहबिध भेष किये ।। कोई मनि-दर्पन कर धारै, कोई ठाड़ी खड़ग लिये ||१५१।। कोई गूंथि मनोहर माला, आवै आन सुगंध खरी ।। कोई कलपतरोवरसौं ले, फल फूलनकी भेंट धरी ||१५२।। कोई काव्य कथारस पोखें, कोई हास्य विलास ठवें ॥ कोई गावै बीन बजावै, कोई नाचत सीस नवें ||१५३।।
दोहा। इह बिध सेवा करत नित, नवें मास सुभ स्रेय ।। प्रस्न करै सुरकामिनी, भाता उत्तर देय ||१५४।। अंतरलापि पहेलिका, बहिरलापिका एव ।। बिंदुहीन निरहोठ पद, क्रियागुप्त बहुभेव ||१५५।। इत्यादिक आगम-उकत, अलंकारकी जात || अर्थगूढ़ गंभीर सब, समझाबैं जिन-मात ||१५६।।
चौपाई। तुमसी त्रिया कौन जग आन । तीर्थंकर सुत जनै महान || जगमैं सुभट कौनसे माय । जे नर जीतें विषय कषाय ||१५७|| कौन कहावे कायर दीन । इन्द्री-मद-मेटन बलहीन ।। पंडित कौन सुमारग चलै । दुराचार दुर्मारग दलै ||१५८॥ माता मूरख कौन महंत । विषयी जीव जगत जावंत ।। कौन सत्पुरुष नरभव धार | जो साधै पुरुषारथ चार ||१५९।। कौन कापुरुष कहिये मर्म | जो सठ साध न जानै धर्म ।। धन्य कौन नर इस संसार | जोबन समै धरै व्रतभार ||१६०||
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