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चौथा अधिकार/५९
अंतकाल जब पहुंचै आय । कहा होय जो तब पछताय ।। पानी पहले बंधै जो पाल | वही काम आवै जल-काल ||७०।। यही जान आतम हित हेत | करें विलंब न संत सुचेत ।। आज काल जे करत रहाहिं | ते अजान पीछे पछताहिं ||७१॥ रात दिवस घटमाल सुभाव | भरि भरि जल जीवनकी आव ।। सूरज चांद बैल ये दोय । काल रँहट नित फेरै सोय ||७२।।
दोहा । राजा राना छत्रपति, हाथिनके असवार । मरना सबकौं एक दिन, अपनी अपनी बार ||७३|| दलबल देई देवता, मात पिता परिवार | मरती बिरियाँ जीवकौं, कोउ न राखनहार ||७४|| दाम बिना निर्धन दुखी, तिसना वस धनवान | कहूँ न सुख संसारमैं, सब जग देख्यौ छान ||७५।। आप अकेला अवतरै, मरै अकेला होय । यों कबही इस जीवका, साथी सगा न कोय ||७६।। जहां देह अपनी नहीं, तहां न अपनो कोय । घर सम्पति पर प्रगट ये, पर हैं परिजन लोय ||७७|| दिपै चाम-चादर-मढ़ी, हाड़ पीजरा देह । भीतर या सम जगतमैं, और नहीं घिनगेह ||७८||
सोरठा। मोहनींदके जोर, जगवासी घूमै सदा । कर्मचोर चहुँ ओर, सरवस लूटें सुधि नहीं ||७९।। सतगुरु देहिं जगाय, मोहनींद जब उपसमै । तब कछु बनै उपाय, कर्मचोर आवत रुकैं ||८०||
दोहा । ग्यान दीप तप तेल भरि, घर सोधै भ्रम छोर । याबिध बिन निकसैं नहीं, पैठे पूरब चोर ||८१।।
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