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पाण्डव-पुराण ।
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तीसरा अध्याय।
उन आदिनाथ प्रभुको नमस्कार है जो वैलके चिन्हसे युक्त हैं, धर्म-मय और
धर्मके दाता है तथा धर्मके अर्थी पुरुप जिनकी सेवा करते है, और जो वैरियों पर विजय-काम कर चुके हैं।
सेनापति जयके सिवा सोमप्रभ महाराजके विजय आदि चौदह पुत्र और थे। वे सबके सब गुणोंके भंडार और मनोहर रूपवाले थे । वे ऐसे जान पड़ते थे मानों चौदह कुलकर ही है । इन पंद्रह पुत्रोंके द्वारा श्रीमान् सोमप्रभ महाराज इन्द्र जैसे सुशोभित थे । एक समय किसी निमित्तको पाकर वे संसारभोग आदिसे विरक्त हो गये। उन्होंने अपना सारा राज-पाट अपने पुत्रोंको सौंप कर शूरवीर जयको उन सवका मुखिया बना दिया । इसके बाद वे ऋषभ प्रभुके पास गये और उनसे दीक्षा लेकर दिगम्बर हो गये । एवं कुछ कालमें कर्मजालको तोड़ कर वे मोक्ष-महलमें जा विराजे ।
इधर जय अपने चाचा श्रेयान्सके साथ-साथ पहलेकी भाँति ही राजसुख भोगने लगे । एक दिन वे विहारके लिए एक घने जंगलमें गये । उन्होंने
हॉ बैठे हुए एक मुनिको देख नमस्कार किया। मुनिका नाम शीलगुप्त था । जयने एक नाग और नागिनीके साथ-साथ उनसे धर्मका उपदेश सुना । धर्मको तुन कर उनका चित्त बहुत संतुष्ट हुआ । इसके बाद वे नगरको चले आये। रसा ऋतुका आरम्भ ही था कि उस समय अकस्मात् वज्रपातके द्वारा वह नाग शान्त-चित्तसे मर कर नागकुमार जातिका देव हुआ।
- इसके बाद एक दिन हाथी पर सवार हो जय महाराज फिर दुवारा उसी वनमें गये । वहाँ जाकर उन्होंने उसी नागिनीको, जिसने कि उनके साथ-साथ पहले धर्मका उपदेश सुना था, एक नीच जातिके काकोदर (सॉप) के साथ क्रीड़ा करते हुए देखा । इस पर उन्हें बहुत क्रोध आया । उन्होंने क्रीड़ा-कमलके द्वारा उन दोनोंको मारा तथा धिक्कार दिया। राजाको मारते देख इधर उधरसे आ-आ कर उनके सभी सिपाहियोंने भी उन्हें लकड़ी, पत्थर आदिके द्वारा मारना शुरू किया। सच है राजाका कोप होने पर नीच चरितवालों पर सभी कोप करते है । कोई भी उनकी तारीफ नहीं करता। मारसे काकोदर बहुत ही व्याकुल हुआ और निर्जरा सहित मर कर गंगा नदीम