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चौथा अध्याय |
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इसके बाद एक बार पर्व के दिनोंमें स्वयंप्रभाने वड़े आनन्दके साथ उपवास किया । यद्यपि उपवाससे उसका शरीर कृश हो गया था तो भी उसकी शोभा अपूर्व थी । स्वयंप्रमाने जिनेन्द्र देवकी बड़ी भक्तिसे पूजा की और उनके चरण1 कमलोकी शेषा लाकर अपने पिताको प्रदान की । पिताने उसे भक्तिके साथ मस्तक पर चढ़ाया । उस समय स्वयंप्रभाके पिता ज्वलनजटीने देखा कि अब कन्या युवती हो गई हैं, इसका किसी उत्तम वरके साथ विवाह कर देना योग्य है । इसके बाद ही उसके मनमें प्रश्न उठा कि स्वयंप्रभा जैसी सुन्दरी कन्या किले दी जानी चाहिए | इस प्रश्नको जब वह स्वयं हल न कर सका तब उसने अपने मंत्रिवर्गको बुलाया और उनसे कन्या देनेके सम्वन्धमें सलाह पूछी । इस पर शास्त्रज्ञ सुश्रुत नाम मंत्रीने कहा कि महाराज ! इसी विजयार्द्धकी उत्तर श्रेणीमें एक अलकापुरी नाम नगरी है | वहाँका राजा मयूरग्रीव है । उसकी रानीका नाम नीलांजना है । उनके कई एक पुत्र हैं । वे सब महान बली हैं । उनके नाम अश्वग्रीव, नीलकंठ और वज्रकंठ इत्यादि है । अवग्रीव की खीका नाम कनकचित्रा है | अश्वग्रीव और कनकचित्राके पांचसौ पुत्र हैं। अश्वग्रीवका हरिस्मक नाम मंत्री और शतविन्दु नाम निमित्तक है । वह तीन खंड पृथ्वीका स्वामी है । मेरी सम्मति है कि आप अश्वग्रीव जैसे विस्तृत राज्यवाले राजाको कन्या दें, तो कन्याको सुख होगा और आपको भी शान्ति मिलेगी । सुश्रुतकी वातको सुन कर वहुश्रुत नाम मंत्रीने कहा कि तुम्हारा कहना ठीक है; परन्तु अश्वग्रीवकी अवस्था अधिक है, अत एव यदि उसे कन्या दी जायगी तो सम्भव है कि वह भोगों से वंचित रह जाय अर्थात् हमेशा सौभाग्यवती न रहेवैधव्य जैसे महान संकट में पड़ जाय । देखो ! वरमें ये नौ गुण तो अवश्य ही होने चाहिए | उच्च जाति, नीरोगता, योग्य आयु, शील, शास्त्रका ज्ञान, सुन्दर सुडौल शरीर, धन-दौलत, पक्ष और कुटुम्ब । अश्वग्रीवमें इनमेंकी बहुतसी बातें नहीं है, इस लिए यह स्वयंप्रभाके योग्य नहीं है । दूसरा और कोई वर खोजा जाना चाहिए । कारण, स्पष्ट देख-भाल कर ही सत्पुरुष सन्तुष्ट होते हैं और अपनी कन्या प्रदान करते है । सुश्रुत ने फिर कहा कि महाराज ! और देखिए, गगनवल्लभ पुरमें सिंहरथ, मेघपुर में पद्मरथ, चित्रपुरमें अरिंजय, अश्वपुरमें हेमरथ, रत्नपुरमें धनंजय इत्यादि बहुतसे राजा है । इनमेंसे जो आपको पसंद पड़े उसे पुण्यवती और सौभाग्यशालिनी प्रभावती को दीजिए । यह सुन कर श्रुतसागर नाम मंत्रीने कहा कि महाराज ! स्वयंप्रभा के योग्य वर मैं बताता हूँ, सुनिए ।
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पाण्डव-पुराण ८
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