Book Title: Pandav Purana athwa Jain Mahabharat
Author(s): Ghanshyamdas Nyayatirth
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 386
________________ ३७४ wwwwwwwwwwwwwwwww पाण्डव-पुराण। पच्चीसवाँ अध्याय । उन अरिष्ट नेमिनाथको नमस्कार है जो दो प्रकारके धर्म-रथकी धुरा हैं, जिनको नर-सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं; एवं जो न्यायकारी हैं। इसके बाद नागश्रीका मुनिको जहर देने रूप पाप सव पर प्रगट हो गया। लोग उसकी निन्दा करने लगे और उसे पीड़ा देने लगे । इतना ही नहीं, किन्तु उन्होंने उसका मस्तक मुंडवा कर उसे गधे पर चढ़ाया और सारे नगरमें फिरा कर नगरके वाहिर निकाल दिया । लोगोंने पत्थरोंसे मारा-बड़ा दुःख दिया । अन्तमें वह कोढ़के दुःखसे मरी और पापके वश पाँचवें नरकमें पहुँची । वहाँ उसने छेदन, भेदन, शूलारोहण, ताड़न आदि विविध दुखोंको भोगा और बड़े कष्टोंसे वहाँ सत्रह सागरकी आयुको विताया। बाद आयु पूरी होने पर जब वह दुर्बुद्धि वहाँसे निकली तव स्वयंप्रभ नाम दीपमें दृष्टि-विष जातिका सर्प हुई । उसकी चंचल जीभ थी। क्रोधसे नेत्र लाल थे । वह बड़ा हिंसक था और कृष्ण लेश्याका धारक अतिशय कृष्ण था । फणकी पुत्कारसे वह बहुत भयावह था। उसकी पूछ बहुत चंचल थी और वह कषायके मारे एकदम विवश हो रहा था । जान पड़ता था मानों वह मूर्ति धारण कर क्रोध ही आया हो।। ___ वह यहाँसे आयु पूरी कर मरा और पापके फलसे दूसरे नरकमें पहुँचा । वहाँ उसने तीन सागरकी आयु-प्रमाण दुःखके पूरमें खूब ही गोते मारे । एवं वहाँसे निकल कर वह कुछ कम दो सागर तक त्रस तथा स्थावर योनिमें फिरा और उसने अगणित जन्म-मरण किये, जिनके दुःखका कुछ ठिकाना ही नहीं । इसके बाद वह पापी जाकर चंपापुरीमें चांडालिन हुआ। दैव-संयोगसे एक दिन वहाँ वह उदम्बर फल आदि खानेके लिए जंगलमें गई थी कि सहसा उसे समाधिगुप्त नाम योगीन्द्र दीख पड़े । उन्हें देख कर सुखकी इच्छासे वह धीरे धीरे उनके पास गई । वे मौन धारण किये स्थिर बैठे थे । वे किसीसे कुछ कहते बोलते न थे । वे ध्यानमें निमग्न थे । उनको इस तरह ध्यानमें बैठे देख कर उस चांडालिनने पूछा कि महाराज, आप यह क्या करते है ? उसके मुँह इस तरहका प्रश्न सुन कर उनका ध्यान भंग हुआ । वह उससे शान्तिके साथ बोले कि भव्ये, भय द्वारा आकुल हुए ये प्राणी संसारमै चकर लगाते हैं और पापके वश हो कर दुर्गतिमें जाते हैं । इतने पर भी जो बड़ी कठिनाईसे हाथ आने

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