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तेरहवाँ अध्याय।
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इधर दुर्बुद्धि तथा कलुषित-चित्त दुर्योधन युधिष्ठिर आदिको मारनेकी चिंतामें अपनी धर्मशून्य-बुद्धिको व्यय करने लगा। वह हमेशा इसी चिंतामें रहता. था कि जिस तरह हो सके पांडवोंका विध्वंस करूँ।
एक बार उस उद्धत-आत्माने कपटसे एक लाखका महल बनवाया । वह बड़ा सुन्दर और अति शीघ्रतासे बनवाया गया था । उस पर बड़े ऊँचे और विशाल कूट बनाये गये थे और उन कूटों पर सुन्दर कलश चढ़ाये गये थे। वे उस पर ऐसे शोभते थे मानों सूरज जड़ दिये गये हैं । उस महलमें विस्तृत और लम्बी-चौड़ी जाली लगाई गई थी, वह ऐसी जान पड़ती थी मानों पांडवोंको फंसानेके लिए आगकी समता करनेवाला जाल ही लगाया गया है । उसमें छोटे छोटे और सुन्दर झरोखे थे, मानों उनकी दीप्तिको हरनेके लिए उसने अपने नेत्र ही खचित करवा दिये थे । उस पर रत्नोंके तोरण बंधे हुए थे, अतः उनसे उस महलकी एक मिन ही शोभा थी और ऐसा भान होता था कि मानों दुर्योधनने पांडवोंका रण-छल देखनेको यह मूर्तिमान् रण ही तोरणके छलसे यहाँ खड़ा किया है । उसके थमे ऐसे जान पड़ते थे मानों वैरियोंको वॉधनेके लिए स्तंभन-विधाके रूपमें खड़े किये गये सुदृढ़ · स्तंभ ही है । उसमें चित्र-विचित्र चित्र लगे हुए थे, उनसे जाना जाता था कि वे शत्रु ही खचित कर दिये गये हैं । उनको देखनेसे चित्तमें एक भिन्न ही स्फूर्ति पैदा होती थी । उसमें नाना रास्ते थे । वह खाईसे घिरा हुआ था । उसके चारों ओर कोट बना हुआ था, जिससे उसकी एक सवसे निराली ही छटा थीशोभा थी। अधिक क्या कहा जाय वह सब तरह सुशोभित था-उसमें किसी भी वातकी कमी.न थी । इस अपूर्व महलको कौरवोंके अगुआ दुर्योधनने वनवाया था। इसके वनवानेमें उसे बहुत देर न लगी थी।
इसके बाद दुर्योधन आदि कौरव शान्त-चित्त भीष्म पितामहके पास गये और उन्होंने विनयके साथ उन्हें मस्तक नवा कर कहा कि गंगाके जल समान निर्मल-चित्त पितामह, हमने भक्तिसे प्रेरित होकर सब तरहसे सुसज्जित एक महल बनवाया है । वह इतना विशाल और ऊँचा है कि अपने शिखरोंसे आकाशको छूता है । महाराज, उसे देखनेसे ऐसा जान पड़ता है कि मानों वह विजयी देवतोंके महलोंकी संततिको जीतनेके लिए जानेकी तैयारी ही कर रहा है । वह अपने थंभों-रूप हाथोंसे ऐसा जान पड़ता है कि - मानों उनसे शत्रुओं के मालोकी सम्पति ही हरना चाहता है । अपने शिखर, रूप मस्तकसे वह इतना