Book Title: Pandav Purana athwa Jain Mahabharat
Author(s): Ghanshyamdas Nyayatirth
Publisher: Jain Sahitya Prakashak Samiti

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Page 377
________________ चौबीसवाँ अध्याय | ३६५ अपने माता-पिताको स्मशान भूमिमें लेजा कर चितामें झोंक दो । मुझे न समझाओ। मुझे सीख देने की जरूरत नहीं है । इसके बाद प्रवोध देते हुए पांडवोंने बलदेवके साथ सारा चौमासा बिना नींद लिये ही बिता दिया । एक दिन उसी सिद्धार्थ नाम देवने मृत देहका संस्कार करनेके लिए वलदेवको फिर भी समझाया । तव प्रवोधको प्राप्त होकर बलदेव वोले कि तुम बहुत अच्छे आये । तुम्हारे आनेसे मुझे बड़ा हर्ष हुआ । इसके बाद बलदेवने पांडवोंके साथ-साथ लूँगीगिरि पर जाकर कृष्णके देहकी दग्ध क्रिया की और बाद पिहितास्रव मुनिके पास जाकर उन्होंने संयम ले लिया । जिन उत्तम धर्म - रथकी धुराको धारण करनेवाले नेमि प्रभुने राज्यको तथा सुंदरी राजीमतीको त्याग कर दीक्षा धारण की, जो इन्द्रों द्वारा पूजित, कामको हरनेवाले, अतुल समभाव युक्त और भयको दूर करनेवाले हुए तथा जिन्होंने कर्मोंका नाश कर केवल ज्ञान प्राप्त किया वे प्रभु अंतमें संसारको धर्मामृतका पान करा कर गिरनार पर्वतके शिखर पर विराजमान हुए और वहाँसे उन्होंने मोक्ष लाभ किया । जो नेमिम अखिल नरेशों द्वारा संसेवित हैं, जिनको देवोंके इन्द्र भी आकर पूजते और मानते हैं और जिन्होंने धर्मतीर्थको प्रवर्तित किया है उन नेमिनाथ भगवान के लिए मेरा वार-बार नमस्कार है । नेमिनाथ भगवानमें बड़े मोहक गुण हैं और उनका शासन सर्वोत्तम है । यही कारण है जो मेरा हृदय उन पर अटल विश्वास रखता है । वे महान नेमि मुझे धर्म-दान दें। चौबीसवाँ अध्याय । ܬܡܢ उन नाम जिनको नमस्कार है जो सच्चे धर्म-रूपी अमृतके दाता हैं, जिनकी "विविध नर, सुर और मुनीश्वर बन्दना करते हैं तथा जो जितेन्द्रिय और विपक्ष रहित हैं । इसके बाद करुणाके भरे पांडव जारसेयको साथ लिये द्वारिका आये । उन्होंने परमोदयशाली तथा प्रशस्त गृहों द्वारा उस पुरीको फिरसे बसाया और वहाँकी राजगादी पर जरा-पुत्रको बैठाया। इस समय वे कृष्ण बलदेवके पुरातन

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