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पाँचवाँ अध्याय।
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था वह सर्वार्थसिद्धिसे चय कर उसके गर्भमें आया । उस दिन भादों पदी सातें थी। इसके बाद वह जगी और शय्यासे उठी तथा प्रभातकी क्रियाओंसे निवट कर और वस्त्र-आभूषण वगैरह पहिन कर हर्षित होती हुई पतिदेवके पास गई । उस समय उसने बहुन दान किया, जिससे कि उसके हाथोंकी अपूर्व ही शोभा थी । वह उस वक्त चलती हुई कल्पवेलसी जान पडती थी । स्वामीने उसे आदरके साथ आधे सिंहासन पर बैठाया और उसका बहुत आदर किया । इसके बाद उस मानिनी रानीने स्वामीसे अपने रातवाले स्वमोंका फल पूछा । उत्तरमें स्वामीने कहा कि इन स्वभोंसे जान पडता है कि तुम्हारे गर्भसे संसारका उद्धारक कोई महात्मा जन्म लेगा । यह सुन कर वह बहुत ही हर्षित हुई । इसके बाद अवधिज्ञान द्वारा भगवानको गर्भमें आया जान चतुरंग सेना सहित इन्द्रगण आये और प्रभुका स्वर्गावतरण-कल्याण बड़ी भारी धूमधामके साथ कर अपने अपने स्थानको चले गये । इसके बाद रानीका ज्यों ज्यों गर्भ वृद्धिंगत होता जाता था त्यों त्यों उसका प्रभाव बढ़ता जाता था, शरीर दीप्त होता जाता था और वह दयावाली दया और दानमें रक्त होती जाती थी । उसकी देवता-गण पन्द्रह महीनेसे रत्नोंकी बरसा द्वारा सेवा उपासना कर रहे थे। उस देवीने जेठ वदी चौदसके दिन उत्तम सुत रत्नको जन्म दिया। प्रभुका जन्म होते ही देवोंके यहाँ आपसे आप विना बजाये महाशंख, भेरी सिंहनाद, घंटा आदि वाजोंके शब्द हुए; जिनसे उन्हें भगवानके जन्मकी सूचना मिल गई । खवर पाते ही हर्षसे भेरे हुए देवता-गण सहित इन्द्र-गण आये; और विश्वसेन महाराजके महलसे सुन्दर रूपवाले प्रभुको लेकर सुमेरु पर्वत पर गये । वहाँ धर्मके मेमी इन्द्रने प्रभुको सिंहासन पर विराजमान कर सुवर्णके कलशोंसे उनका अभिषेक किया; एवं बड़ी भक्तिसे उनकी प्रशंसा-स्तुति की । वहाँसे वापिस आकर इन्द्रने प्रभुको उनकी माताकी गोदमें दिया । प्रभुकी आयु एक लाख वर्षकी थी । उनका नाम शान्तिनाथ था। उनका शरीर चालीस धनुष ऊँचा था, अचल था, उत्तम लक्षणोंवाला था, तथा यौवनसे उन्नत था । इसके बाद दृढ़रथ सर्वार्थसिदिसे चय कर उसी विश्वसेन राजाकी यशस्वती रानीके गर्भसे चक्रायुध नाम पुत्र हुआ। चक्रायुधकी बहुतसे पुरुष सेवा करते थे। उसकी स्तुति करते थे। इसके वाद विश्वसेन राजाने कुल, शील, कला रूप और अवस्था सौभाग्य आदिसे विभूषित बहुतसी कन्याओंके साथ शान्तिनाथ प्रभुका ब्याह किया और उन्हें