________________
तीसरा अध्याय।
MAAN
दूर कर देती है । वे दोनों जव सचेत हुए तव उन्हें अपने परिवारके लोगोंकी विह्वलता देख कर बहुत ही अचंभा हुआ और साथ ही पिछले भवोंका स्मरण हो
आया। जयने सुलोचनासे कहा कि प्रिये ! अपने पिछले जन्मोंका सारा हाल सुना कर इन सबके कौतुकको मिटाओ । अपने प्रियतमकी आज्ञा पाकर वह मिष्टभापिणी यों कहने लगी कि-"जम्बूद्वीपके पूर्व-विदेहमें एक पुष्कलावती देश है। उसमें मृणालवती नाम पुरी है । वहाँके राजा सुकेतु थे । इसी नगरीमें एक रतिवर्मा नाम सेठ रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम कनकश्री और पुत्रका नाम भवदेव था । यहाँ श्रीदत्त नाम एक वैश्य और थे। उनकी स्त्रीका नाम विमलश्री और पुत्रीका नाम रतिवेगा था। वह सती थी। एवं अशोकदेव नाम एक तीसरे सेठ
और यहीं रहते थे। उनकी स्त्रीका नाम जिनदत्ता और पुत्रका नाम सुकान्त था। वह हमेशा धर्म-कर्ममें लगा रहता था। एक बार भवदेवके माता-पिताने उसके लिए रतिवेगाके माता-पितासे उसकी याचना की और उन्हें इस काममें सफलता भी प्राप्त हुई। भवदेवका चाल-चलन खराव था, इस लिए लोग उसे दुर्मुख भी फहा करते थे। एक समय धन कमानेकी इच्छासे जव भवदेव दूसरे देशको जा रहा था तव श्रीदत्तने उससे विवाहके सम्बन्धमें कहा कि अव इस समय तो आप व्यापारके लिए जा रहे है, पर यह तो वताइए कि विवाह कब तक रुका रहेगा। इस पर वह बारह वर्षकी प्रतिज्ञा करके परदेशको चला गया। वह कह गया कि यदि मैं वारह व पीछा न आऊँ तो इस कन्याका व्याह तुम दूसरेके साथमें कर देना।
दैवयोगसे ऐसा ही हुआ। धीरे धीरे बारह वर्ष पूरे होगये, पर वह वापिस न आया । आखिर रतिवेगाके पिता श्रीदत्तने बड़े भारी ठाटवाटके साथ अपनी कन्याका व्याह अशोकके सुकांत नाम पुत्रके साथ कर दिया । रतिवेगा साक्षात् रति ही थी । इसके बाद जब भवदेव परदेशसे घर आया और उसने रतिवेगाके व्याहकी चर्चा सुनी तव वह बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने सुकान्त तथा रतिवेगाको मार डालनेका निश्चय किया । जिसको सुन कर डरके मारे सुकान्त रतिवेगाको साथ लेकर वनमें चला गया। वहाँ सरोवर पर शक्तिपेण नामका एक राजा ठहरा हुआ था। वे उसकी शरणमें गये। पीछेसे दुख भी उन्हें मारनेके लिए वहीं आ पहुँचा । पर वहाँ जब उसका कुछ भी वश न चला तव वह शक्तिषेण राजाके भयसे वापिस लौट आया । दैवयोगसे इसी समय शक्तिपेणके डेरे पर चारण मुनि आहारके लिए आये और शक्तिपेणने उन्हें शुद्ध भावोंसे आहार दिया तथा उनकी खूब पूजा-भक्ति की। - पाण्डव-पुराण ५