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पाण्डव-पुराण ।
युद्ध करनेको तैयार हो गया । जान पड़ता था कि मानों प्रलयकालका मेघ ही उमड़ रहा है; क्योंकि प्रलयकालका मेघ भी हेय-उपादेय रहित और मर्यादा रहित होता है । इसके बाद अनवद्यमति मंत्रीने, जो कि मंत्रीके सभी लक्षणोंसे युक्त था, अर्फकीर्तिको न्याय-युक्त और हितकर वचनों द्वारा समझाना शुरू किया। राजन् ! आपके वंशसे धर्म-तीर्थ चला और जयके वंशसे दान-तीर्थ । इस अपेक्षासे तो आप और जय वरावर ही है। दूसरी बात यह कि आपका
और जयका स्वामी-भृत्यका घनिष्ट सम्बन्ध है । अत एव आपको अपना कुछ भी पराभव नहीं समझना चाहिए । राजन् ! पहले तो पराई स्त्रीकी चाह करना ही अनुचित है और दूसरे यदि लड-भिड़ कर जवरदस्ती सुलोचना लाई भी जायगी तो निश्चय है कि वह आपकी भार्या न होगी; भले ही अपने प्राण खो बैठे । उस वक्त प्रताप-पूर्ण जयका यश संसारमें दिनकी नाई हमेशा स्थित रहेगा और रातकी नॉई संसार भरमें आपकी अपकीर्ति फैल जायगी। राजन् ! जल्दी मतकीजिए; अभी युद्धके लिए तैयारी मत कीजिए। यह मत समझिए कि मैं ही बलवान हूँ और मेरे पास ही सब साधन है। किन्तु उधर अकंपनके पक्षमें भी बहुतसे राजा हैं और उनके पासमें काफी साधन भी है। राजन् ! धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति होना पुरुषोंके लिए कोई आसान बात नहीं है; परन्तु इन तीनोंको आप साध चुके हैं और बहुत आसानीसे । पर अव न्यायको लॉप कर उनका व्यर्थ ही सत्यानाश मत कीजिए । देखिए, संसारमें बहुतसे राजा हैं और उनके यहाँ बहुतसे कन्यारत्न है । मैं निश्चयसे कहता हूँ कि उन कन्यारत्नोंको ला-ला कर आपके भंडारमें जमा कर दूंगा । इस वातमें आप बिल्कुल ही संदेह न करें । यह स्वयंवर-विधि. है । इसमें यह नियम नहीं है कि मान्य पुरुषके गलेमें ही वरमाला डाली जाय और गरीवके गलेमें न डाली जाय । किन्तु कन्याके ऊपर ही सब वात निर्भर है ! वह जिसे चाहे पसंद करे । तात्पर्य यह कि जिसको कन्या पसंद करेगी वही उसका वर होगा। इस प्रकार न्याय-पूर्ण वचोंके द्वारा मंत्रीने बहुत कुछ समझायाबुझाया, पर अर्ककीर्तिके हृदय पर उसका कुछ भी असर न पड़ा; जिस तरह कि अनेक युक्तियोंसे कमलिनीके पत्ते पर डाला हुआ जलका एक कण भी नहीं ठहरता । उस कुबुद्धि, हठी और तिरस्कारके पात्र राजाने मंत्रीकी इस अमूल्य
सम्मतिकी कुछ भी परवाह न की और सेनापतिको वुला कर अपने • पक्षके तमाम राजोंसे लड़ाई के दृढ़ निश्चयको कह सुनाया। एवं सब कुछ ठीक-ठाक