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तीसरा अध्याय |
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चक्रवर्तीने अर्ककीर्तिको दो वस्तुएँ दी थीं एक वज्रकांड धनुष और दूसरा सफेद घोड़ोंवाला रथ । इस समय अर्ककीर्तिने इन दोनोंसे काम लिया । जयलक्ष्मीको पाने के लिए उत्सुक अर्ककीर्तिके कुछ विजय चिह्न दिखने लगे----उसने विजयकी धुजासी फहरा दी । यह देख वन्दीजन आकर उसकी स्तुति करने लगे । अर्ककीर्तिकी विजय होती देख यमके तुल्य पराक्रमी जयने वज्रकांड धनुषद्वारा बातकी बातनें दिग्गजोंके मदको नष्ट कर वार्णोंके समूह द्वारा अर्ककीर्तिको प्रभा रहित कर दिया; जिस तरह मेघमाला सूरजको तेज रहित कर देती है । जयने अर्ककीर्तिके शस्त्र, धुजा, छत्र, चमर आदि सभी राजचिन्ह
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भेद डाले और साथमें ही उसकी उद्धतताका भी इलाज कर दिया । यह देख कर अष्टचंद्र वगैरह राजे रणकोविद जयके इष्टका विघात करने को तैयार हुए; परन्तु वे उसका बाल भी बॉका न कर सके । उधर भुजवली आदि राजा हेमांगद के साथ लड़ने को तैयार हुए। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों सिंहोंका समूह ही है । और हेमांगद के भाई वगैरह जो सिंहकी नॉई लड़ने को तैयार थे, उनसे लड़ने को आये । एवं अपने छोटे भाइयोंको साथ लिए हुए अनंतसेन आया और जयके भाइयोंके साथ आ भिड़ा। दोनों पक्षके राजोंमें खूब ही लड़ाई हुई । क्रोधके मारे दोनों पक्षके राजा कॉपते थे । यह सब हाल देख कर जयको खूब ही रोष आया और वह एकदम उन पर टूट पड़ा । जयके पुण्यप्रताप से इसी समय उस नागकुमारका, जिसका कि पहले जिक्र आ चुका है, आसन डगमगाने लगा, जिससे उसने जयके संकटको जान लिया । वह उसी वक्त आया और जयको नागपाश और अर्धचन्द्र शर देकर चला गया । फिर क्या था, वाणको पाते ही जयने उसको वज्रकांड धनुष्य पर चढ़ाया और अष्टचन्द्र आदिको रथ सहित भस्म कर दिया । यह देख कुमारका अभिमान नष्ट हो गया; जिस तरह दॉत और सड़के कट जाने पर हाथी और हथियार छिन जाने पर यम निर्मद हो जाता है । ग्रन्थकार कहते हैं कि कर्मकी चेष्टा बड़ी कष्टमय होती है । इसके बाद विधिके ज्ञाता जयने सरलता के साथ अर्ककीर्तिको पकड़ लिया । देखो, जो अर्ककीर्ति एक भारी गण्य-मान्य पुरुष था उसीकी आज यह हालत हो गई । सच है, मार्गको छोड़ कर जो औधे रास्ते से जाता है वह अवश्य ही दुखी होता है । इसके वाद अस्त होते हुए सूरजके समान प्रथा रहित अर्क - कीर्ति जय रथ में बैठा कर आप स्वयं हाथी पर सवार हुआ । अर्क - कीर्तिके सिवा जयने उसके अनुयायी और और विद्याधरोंको भी नागपाश से