Book Title: Panchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ दूसरा दिन 13 हाँ, यह बात अवश्य है कि यदि हम इस पंचकल्याणक से असली पंचकल्याणक का लाभ लेना चाहते हैं तो हमें इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए कि यह असल-नकल ही हो। तात्पर्य यह है कि यह पंचकल्याणक उस पंचकल्याणक के अनुरूप ही होना चाहिए। यहाँ भी एक प्रश्न संभव है कि ऐसा कैसे हो सकता है ? कहाँ असली इन्द्र की व्यवस्था और कहाँ सामान्य मानवों की व्यवस्था ? कहाँ असली चेतन तीर्थंकर और कहाँ अचेतन पत्थर की प्रतिमा ? ___ अरे भाई, समानता का आशय न तो वैभव और शक्ति से है और न चेतनअचेतन से ही है। तात्पर्य यह है कि यदि सर्वज्ञ भगवान शान्त वीतरागी थे तो उनकी प्रतिमा भी शान्त और वीतरागी छवि की होनी चाहिए; सर्वज्ञ वीतरागी भगवान का उपदेश वीतरागता का पोषक होता था तो यहाँ भी वीतरागता के पोषक व्याख्यान ही होना चाहिए। क्या भगवान के समोशरण में जाकर कोई भगवान के अंगों पर चन्दन लगाता था, उनके अंगों को फूलों से सजाता था? यदि नहीं तो फिर आप यहाँ भी ऐसा कैसे कर सकते हैं ? जो काम आदिनाथ की अयोध्या में संभव नहीं था, वह काम इस पांडाल में भी कैसे हो सकता है ? ___ इस बात को गहराई से समझने के लिए आपको इस द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव को भूलना होगा और यह विचार करना होगा कि आप अयोध्या के नागरिक हैं और यह चतुर्थकाल का आरंभिक काल है। आप भी इस महानाटक के एक पात्र हैं। भले ही आपने कोई बोली न ली हो, इन्द्र न बने हों, सक्रिय कार्यकर्ता भी न हों, मात्र लाभ लेने ही आये हों, फिर भी आप अयोध्या के नागरिक के रूप में इस महानाटक के एक पात्र हैं । अतः आपका व्यवहार भी तत्कालीन अयोध्या के नागरिकों के समान शालीन होना चाहिए, तभी यह पंचकल्याणक असली पंचकल्याणक की असल-नकल होगा और उसका पूरा-पूरा लाभ आपको प्राप्त होगा।

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96