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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
तीर्थंकर ऋषभ के जन्म से सौधर्म इन्द्र इतना आनन्द विभोर हो उठता है कि वह नाचने लगता है। अतिशय भक्ति में बिना कार्यक्रम के ही नाच उठना अलग बात है और सुनियोजित भीड़ के सम्मुख अपनी कला प्रदर्शन के लिए नाचना अलग बात है; दोनों में मुहर - कोड़ी का अन्तर है । इस मूढ़ जगत को प्रसन्न करने के लिए तो वेश्यायें नाचा करती हैं। भक्ति में विभोर होकर जब हमारा मन मयूर नाच उठता है तो कदाचित् तन भी नाचने लगता है ।
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लोग कहते हैं कि 'जंगल में मोर नाचा, किसने देखा ?' पर मोर को यह अपेक्षा ही कहाँ है कि कोई उसके नृत्य को देखे। बल्कि बात तो ऐसी है कि यदि मोर को यह अनुभव हो जावे कि कोई उसे देख रहा है तो वह नाचना ही बंद कर देगा; क्योंकि वह किसी को दिखाने के लिए नहीं नाचता है। उसका नृत्य तो आकाश में बादलों को देखकर होने वाले प्रमुदित मन का परिणाम है । वह तो स्वान्तः सुखाय ही नाचता है, किसी को प्रसन्न करने के लिए नहीं । उसका नृत्य तो उसके हृदय की प्रसन्नता का परिणाम है, कि किसी अन्य को प्रसन्न करने के लिए |
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ज्ञानियों की भक्ति भी उनके प्रमुदित मन का परिणाम होती है, किसी अन्य की प्रसन्नता के लिए नहीं । इन्द्र भी सहज भक्तिवश नाचता है, प्रदर्शन के लिए नहीं। तीर्थंकर ऋषभ का जन्मकल्याणक देखकर हमारा मन मयूर नाच उठे तो हम भी नाचें, कोई हानि नहीं; पर जगत के लक्ष्य से नृत्य करना भक्ति नहीं है।
प्रदर्शन की भावना से नाचने वाले लोग भगवान की ओर उन्मुख होकर नहीं नाचते, वे तो जनता की ओर उन्मुख होते हैं, भले ही भगवान की ओर उनकी पीठ ही क्यों न हो जावे। उन्हें इतना भी विवेक नहीं रहता; क्योंकि उनका लक्ष्य तो जनता की वाह-वाह लूटना है। उनके हृदय में भक्ति का परिणाम भी कहाँ है, वहाँ तो यश की कामना ही हिलौरे लेती नजर आती है।