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छठवाँ दिन
नेमिनाथ को पशुओं के बंधन और क्रन्दन से वैराग्य हो गया और आदिनाथ को वैराग्य होने में नीलांजना की मृत्यु निमित्त बन गई। समय आ गया तो सब कुछ सहज भाव से सम्पन्न हो गया ।
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राजा ऋषभदेव को वैराग्य हो गया तो उसकी अनुमोदना करने लौकान्तिक देव आये । उनकी पालकी उठाने के सन्दर्भ में इन्द्रों, विद्याधरों और राजाओं में जो संघर्ष हुआ, उसका दृश्य भी आज आपने देखा | प्रतिष्ठाचार्यजी के माध्यम से उसके बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त की। संयम धारण करने की शक्ति विद्यमान होने के कारण मनुष्यों को ही सर्वप्रथम पालकी उठाने का अवसर प्राप्त हुआ। इससे संयम की उत्कृष्टता सहज ही सिद्ध होती है ।
यह तो आप जानते ही हैं कि संयम धारण किये बिना तो तीर्थंकरों को भी केवलज्ञान नहीं होता, मोक्ष नहीं होता; अत: संयम ही श्रेष्ठ है। इस सन्दर्भ में दशलक्षण पूजन का निम्नांकित छन्द ध्यान देने योग्य है -
"जिस बिना नहीं जिनराज सीझें तू रुलो जग कीच में । इक घरी मत विसरौ करौ, यह आयु जममुख बीच में ॥"
यद्यपि संयम जीवन में एक घड़ी भी विसारने लायक नहीं है; तथापि बिना पूरी तैयारी के किसी की नकल पर संयम धारण कर लेना भी बुद्धिमानी का काम नहीं है।
महाराजा ऋषभदेव ने दीक्षा ली तो उनके साथी सहयोगी चार हजार राजाओं ने भी बिना विचारे देखा-देखी उनके साथ दीक्षा ले ली। मुनिराज ऋषभदेव दीक्षा लेते ही ध्यानस्थ हो गये। वे अपने आत्मा के चिन्तन, मनन, विचार और ध्यान में ऐसे मग्न हुए कि ६ माह तक ध्यानस्थ ही खड़े रहे । उन्होंने किसी को यह तो बताया नहीं था कि मैं लगातार छह माह तक ध्यानस्थ ही रहूँगा। अतः साथी राजा उनका मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए