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छठवाँ दिन
मुनिचर्या और उसके विधि-विधान को विधिवत समझाना था, उनका आचार्यत्व करना था। उनको इसप्रकार साथ लेकर मझधार में छोड़ देना तो समझदारी का काम नहीं है। उन राजाओं की तो गलती है ही, पर वे तो अजान थे; अतः उनसे गलती हो जाना तो स्वाभाविक ही था; पर ऋषभदेव तो सब समझते थे, उन्होंने अपनी जिम्मेदारी क्यों नहीं निभाई ?
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भाई, ऋषभदेव से अनुमति लेकर थोड़े ही वे दीक्षित हुए थे। तीर्थंकरों का तो नियम है कि वे स्वयं दीक्षित होते हैं, किसी से दीक्षा नहीं लेते, किसी को दीक्षा देते भी नहीं है। वे तो दीक्षा लेते ही जीवन भर के लिए मौन धारण कर लेते हैं। वे किसी को साथ नहीं रखते, वे तो एकल विहारी ही होते हैं। वे आचार्यत्व भी नहीं करते। वे मुनिदिशा में किन्हीं दूसरों का बोझ नहीं उठाते।
केवलज्ञान होने के बाद उनकी दिव्यध्वनि अवश्य खिरती है, पर वे छद्मस्थ मुनिदशा में नहीं बोलते। दिव्यध्वनि भी सहज खिरती है, सर्वांग से खिरती है, मुँह से तो तब भी नहीं बोलते। दिव्यध्वनि की विस्तृत चर्चा कल केवलज्ञानकल्याणक के दिन होगी। आज तो तपकल्याणक का दिन है, अत: तपसम्बन्धी चर्चा ही अभीष्ट है।
जीवनभर के मौनव्रती ऋषभदेव उन्हें क्या समझाते, क्यों समझाते, कैसे समझाते? उस समय आहारदान की भी विधि कोई नहीं जानता था, इसीकारण ऋषभदेव को बिना आहार के सात माह और नौ दिन तक भटकना पड़ा था। छह माह के उपवास के बाद सात माह और नौ दिन तक उन्हें आहार की विधि प्राप्त नहीं हुई; क्योंकि उस समय किसी को आहारदान की विधि ही ज्ञात नहीं थी ।
इस बात की विशेष चर्चा तो अभी आहारदान के प्रकरण में करेंगे। अभी यहाँ तो मात्र इतना ही बताना है कि उन्हें स्वयं को भी आहार नहीं मिला, फिर भी उन्होंने किसी को आहारदान की विधि नहीं बताई तो फिर उन राजाओं को समझाने के विकल्प में वे क्यों उलझते?