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सातवाँ दिन रहने वाले दो कैदियों में भी इसप्रकार का संबंध होता है। वैसे तो वे एक दूसरे के कुछ नहीं होते हैं, फिर भी उनमें परस्पर अपनापन हो जाता है, यह सब मोह (मिथ्यात्व) की ही महिमा है।
इसीप्रकार यह आत्मा देह के साथ रहने के कारण देह में ही अपनापन स्थापित कर लेता है, उसे अपना मानने लगता है और उसके प्रेम में पागल जैसा हो जाता है, उसकी साज संभाल में अपना समय, श्रम और शक्ति बर्बाद करता रहता है।
अतः सर्वप्रथम इस अशुचि देह और परमपवित्र भगवान आत्मा के बीच भेदविज्ञान करना चाहिए; देह में से अपनापन तोड़ कर निज भगवान आत्मा में अपनापन करना चाहिए।
जिसप्रकार यह भगवान आत्मा देहदेवल में रहते हुए भी देह से भिन्न है; उसीप्रकार इस भगवान आत्मा में जो मोह-राग-द्वेष के विकारीभाव उत्पन्न होते हैं, उनसे भी यह भगवान आत्मा अन्य है, भिन्न है। ये मोहराग-द्वेष के परिणाम क्षणिक हैं, विकारी हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के कारण हैं, अशुचि हैं, अध्रुव हैं, विभावभावरूप हैं और यह भगवान आत्मा नित्य है, अविकारी है, सुखरूप है, सुख का कारण है, ध्रुव है, परमपवित्र है और स्वभावभावरूप है। इसप्रकार ये मोह-राग-द्वेष के भाव निज भगवान आत्मा से विपरीत स्वभाव वाले हैं, अतः हेय हैं ; इन्हें भी निजरूप जानना, मानना
और इनमें रमे रहना आत्मा के अकल्याण का कारण है। अतः इनसे भी अपनापन तोड़कर निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना चाहिए।
देहादि जड़पदार्थों एवं रागादि विकारीभावों से निज भगवान आत्मा को भिन्न जान लेने के उपरान्त पर्यायमात्र से भिन्नता का विचार करना चाहिए; क्योंकि पर्याय चाहे विकारी हो या अविकारी, होती तो अनित्य ही है, क्षणिक ही है। वह अनादि-अनन्त भगवान आत्मा का परिचय देने में समर्थ नहीं हो सकती। निर्मल पर्यायें भी नई-नई उत्पन्न होती हैं, सादि-सान्त हैं और