Book Title: Panchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 81
________________ सातवाँ दिन की 73 रंगारंग ला राग-रंग में ही निमित्त बनते हैं, वीतरागतारूप धर्मान्त ता वीतरागता के पोषक कार्यक्रम ही हो सकते हैं। अतः सम्यग्दर्शन के निमित्तभूत इन महोत्सवों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनमें अधिकतम कार्यक्रम वीतरागता के पोषक ही हो। तदर्थ शुद्धात्मा के स्वरूप के प्रतिपादक प्रवचनों का समायोजन अधिक से अधिक किया जाना चाहिए। अन्य कार्यक्रमों में भी वीतरागता की पोषक चर्चाओं का समायोजन सर्वाधिक होना चाहिए। इसी बात को लक्ष्य में रखकर हमारे तत्त्वावधान में होने वाले पंचकल्याणकों में हम इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं। इन्द्र-इन्द्राणियों और राजा-रानियों के संवादों में भी इसतरह की विषय-वस्तु प्रस्तुत की जाती है,जो सीधी आत्मा को स्पर्श करने वाली हो, वैराग्योत्पादक हो और आत्मा के सम्यक् स्वरूप की प्रतिपादक हो। इन महान धर्मोत्सवों को मनोरंजन एवं मानप्रतिष्ठा का साधन न बनाकर वीतरागी तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार का साधन बनाया जाना चाहिए। इसी में हम सबका भला है, समाज का भी भला है। यद्यपि सम्पूर्ण द्वादशांग भगवान की वाणी है और उसमें जो भी प्रतिपादन किया गया है, वह सभी उपयोगी ही है, आवश्यक ही है; तथापि सम्पूर्ण जिनवाणी के आराधक पाठक तो श्रुतकेवली ही हुआ करते हैं । साधारणबुद्धि के धारक लोगों को तो उसमें से भी प्रयोजनभूत विषयवस्तु को अपने अध्ययन के लिए चुनना होता है, जो आत्मकल्याण के लिए अत्यन्त आवश्यक हो, अनिवार्य हो। भगवान की दिव्यध्वनि भी उसी मूलवस्तु की मुख्यता से खिरती है। वह मूलवस्तु जीवादि तत्त्वार्थ हैं, उनमें भी निज भगवान आत्मा रूप जीवतत्त्व प्रमुख है; क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र एवं चारित्र की एकतारूप मुक्ति का मार्ग निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही उपलब्ध होता है।

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