Book Title: Panchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 85
________________ सातवाँ दिन भगवान की दिव्यध्वनि का सार भी वही भगवान आत्मा है । अत: इन पंचकल्याणकों के अवसर पर इस भगवान आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करने वाले व्याख्यानों की ही मुख्यता रहना चाहिए; क्योंकि यदि किसी जीव को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होगी तो इस भगवान आत्मा के आश्रय से ही होगी और तभी इस पंचकल्यणक को सम्यग्दर्शन के निमित्त के रूप में स्वीकार किया जा सकेगा । 77 केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद भगवान श्रीऋषभदेव की, आत्मा के उक्त स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली दिव्यध्वनि दिन में तीन-तीन बार खिरती थी और प्रत्येक बार का समय छह घड़ी होता था । एक घड़ी २४ मिनट की होती है । इसप्रकार कुल मिलाकर ७ घंटे और १२ मिनट प्रतिदिन उनकी दिव्य-देशना होती थी । विशेष निमित्त मिलने पर कभी-कभी अर्धरात्रि में भी उनकी दिव्यध्वनि खिरती थी, पर वह तो अपवाद ही था । अत: उसकी बात छोड़ भी दें, तो भी ७ घंटे और १२ मिनट तो प्रतिदिन उनका दिव्य उपदेश होता ही था, जिसे सभी श्रोता अत्यन्त रुचिपूर्वक सुनते थे। ऐसी यह दिव्यध्वनि एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक दिन में तीनतीन बार खिरती रही और लाखों श्रोता प्रतिदिन लाभ उठाते रहे। यह सम्पूर्ण काल केवलज्ञान कल्याणक का ही काल माना जायेगा, जिसे हम आज एक दिन के रूप में मना रहे हैं। इसमें भी आधा दिन तो आहारदान की प्रक्रिया में चला गया, जो तपकल्याणक की ही क्रिया थी । अब आप एक कल्पना कीजिए कि यदि आज भी कोई तीर्थंकर हो, उसे केवलज्ञान हो जावे और उसकी दिव्यध्वनि दिन में तीन-तीन बार छह-छह घड़ी खिरने लगे और वह भी आपके ही नगर के समीप; तो क्या आप प्रतिदिन उनकी दिव्यध्वनि श्रवण करने जावेंगे ?

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