Book Title: Panchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 47
________________ 39 पाँचवाँ दिन ___ भाई, एक ही भूमिका के ज्ञानियों के संयोगों और संयोगीभावों में महान अंतर हो सकता है। कहाँ क्षायिक सम्यग्दृष्टि सौधर्म इन्द्र और कहाँ सवार्थसिद्धि के क्षायिक सम्यग्दृष्टि अहमिन्द्र। सौधर्म इन्द्र तो जन्मकल्याणक में आकर नाभिराय के दरबार में ताण्डव नृत्य करता है और सवार्थसिद्धि के अहमिन्द्र दीक्षाकल्याणक, ज्ञानकल्याणक और मोक्षकल्याणक में भी नहीं आते, दिव्यध्वनि सुनने तक नहीं आते। संयोग और संयोगीभावों में महान अन्तर होने पर भी दोनों की भूमिका एक ही है, एक सी ही है। अतः संयोगीभावों के आधार पर रागया वैराग्य का निर्णय करना उचित नहीं है, ज्ञानी-अज्ञानी का निर्णय भी संयोग और संयोगीभावों के आधार पर नहीं किया जा सकता। एक ओर तो ऋषभदेव के यौवनागम में ही ऐसी प्रवृत्ति कि माँ-बाप को भी यह भ्रम हो जाय कि यह शादी ही न करेगा और दूसरी ओर ८३ लाख पूर्व की वृद्धावस्था में नीलांजना का नृत्य देखना - क्या इसमें कुछ विरोधाभास नहीं लगता ? ___ इसमें कुछ भी विरोधाभास नहीं है, मात्र भूमिका की सही जानकारी नहीं होना ही भ्रम उत्पन्न करता है। माता-पिता के अति अनुराग में भी ऐसा हो सकता है। मेरा पुत्र दीक्षित न हो जाय - यह आशंका उनके चित्त को इतना अधिक विचलित कर देती है कि उन्हें अपने पुत्र की जरा-सी वैराग्यवृत्ति सशंक कर देती है। नाभिराय और मरुदेवी का यह सोचना कि यह तो शादी करेगा ही नहीं, मात्र उनके अति अनुराग को ही सूचित करता है, इससे अधिक कुछ नहीं। उक्त वैराग्यमयी सदाचारी जीवन में भी उन्हें शादी करने का सहज राग था ही, तदनुसार ही उन्होंने हाँ की थी। माता-पिता के अनुरोध के कारण उन्होंने शादी की स्वीकृति, इच्छा नहीं होते हुये भी दे दी थी - यह बात कदापि नहीं थी। महापुरुषों की 'हाँ' को कोई 'ना' में नहीं बदल सकता और न 'ना' को 'हाँ' में ही बदल सकता है।

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