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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
हम गीत गाते हैं कि
एक बार तो आना पड़ेगा, सोते हुए भारत को जगाना पड़ेगा।
मान लीजिए भगवान ने आपकी प्रार्थना सुन ली है और वह आने को तैयार हैं, पर एक समस्या है कि वे किस नगर में पधारें, किस घर में अवतरित हों और किस माँ की कूख में आवें ?
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है कोई तत्कालीन अयोध्या जैसा नगर, हैं कहीं तत्कालीन अयोध्या जैसे सीधे - सरल सज्जन नागरिक, है कोई मरुदेवी जैसी भद्र माता और है कोई नाभिराय जैसा पिता ?
पहले हमें ऐसा बनना होगा, जिनके यहाँ तीर्थंकर अवतरित हो सकें। यह तो आप जानते ही हैं कि तीर्थंकर अपनी माँ के इकलौते पुत्र होते हैं । वे अपनी माँ की पहली संतान होते हैं और उनके जन्म के बाद माँ पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत ले लेती है, अत: दूसरी संतान होने का सवाल ही नहीं रहता । है ऐसी कोई माता, जो भरी जवानी में पहली सन्तान के बाद ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की भावना रखती हो ? अकेले ब्रह्मचर्य ही की बात नहीं है, और भी अनेक विशेषताएँ होती हैं तीर्थंकर की माता में।
यही कारण है कि इन पंचकल्याणकों में भी भगवान के माता-पिता बनने वालों को ब्रह्मचर्य व्रत दिया जाता है। माता-पिता की बोली भी नहीं लगती है, क्योंकि इनमें पैसे की मुख्यता नहीं होती, सदाचारी जीवन की मुख्यता होती है, गरिमा की मुख्यता होती है। कहाँ मिलते हैं ऐसे महान युवा दम्पति तीर्थंकर के माता-पिता बनने के लिए ? अन्ततः अनेक सन्तानों के मातापिताओं को ही तीर्थंकर का माता-पिता बनाना पड़ता है; क्योंकि ब्रह्मचर्य लेने को भी वे ही तैयार होते हैं ।
वस्तुत: यह पंचकल्याणक भगवान बनने की प्रक्रिया का महोत्सव है, इन्द्र या राजा बनने या भगवान के माँ-बाप बनने की प्रक्रिया का महोत्सव नहीं है। इसमें भगवान बनने की विधि बताई जाती है, भगवान बनने की प्रेरणा