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तीसरा दिन
21 जोड़ी भव-भव में भी बनी रहे। उन्हें क्या पता था कि यह जोड़ी तो अभी एक मिनट में ही बिछुड़ने वाली है। पिताजी की ट्रेन रवाना हुई कि पत्नी अपने घर जाने लगी और पति अपने घर। वे आये तो एक साथ थे, पर जाने के लिए अलग-अलग हो गए। __जब पत्नी ने पति को इस सहयोग के लिए धन्यवाद दिया और आभार माना तो पति बोला - __ "जब हम दूसरों की खुशी के लिए प्रेम से रह सकते हैं; आठ दिन के लिए ही सही, पर प्रेम से रह तो सकते हैं;अभिनय के रूप में सही, पर शान्ति से रह तो सकते हैं, तो क्या अपनी खुशी के लिए, अपनी सुख-शान्ति के लिए हम एक साथ नहीं रह सकते ? अभिनय करते हुए ही सही, पर एक साथ रह तो सकते ही हैं।
दूसरे का मरण सुधारने के लिए जो काम कर सकते हैं, अपना जीवन सुधारने के लिए वही काम क्यों नहीं कर सकते ? अभिनय ही सही पर जब आज अभिनय करेंगे तो कल सच्चा प्रेम भी पनप सकता है।"
पत्नी बोली - "क्यों नहीं, अवश्य हो सकता है, सच्चे हृदय से प्रयास करने पर क्या नहीं हो सकता?"
जबान से तो इतनी ही बात हुई, शेष बात आँखों ही आँखों में हो गई। दोनों की आँखें गीली हो गईं और वे एक साथ एक ही घर की ओर चल दिये।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ कि आज हम इस पंचकल्याणक में अभिनय करेंगे तो कल कल्याण करने वाले भावों रूप से परिणमित भी होंगे; आठ दिन के अभिनय ने जिसप्रकार उन पति-पत्नी को जीवन भर के लिए बाँध दिया; उसीप्रकार आठ दिन का हमारा यह सदाचारी, सरल, सहज, जीवन हमारे सम्पूर्ण जीवन को सुधार सकता है। अतः अभी आठ दिन के लिए तो आप अपने को तत्कालीन अयोध्यावासियों जैसा बनाइये। हो सकता है कि जो परिणाम आपके इन आठ दिनों में सुधरें, वे जीवन भर के लिए सुधर जायें।