Book Title: Panchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 37
________________ __29 चौथा दिन यही शोभा भी देता है; क्योंकि इसमें आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया का क्रमिक विकास स्पष्ट प्रतिभासित होता है। फिर भी यदि कोई भगवान का जन्म आदि शब्दों का प्रयोग करता है तो यह सोचकर समाधान कर लेना चाहिए कि यह भाविनैगमनय से कह रहा है। __वस्तुतः बात तो ऐसी है कि जन्म तो बालक का ही होता है। तात्पर्य यह है कि जन्म के समय तो हर व्यक्ति बालक ही होता है। राजा का जन्म नहीं होता, प्रधानमंत्री का भी जन्म नहीं होता, पर लोक में कहा तो ऐसा ही जाता है कि राजा दशरथ का जन्म अमुक दिन अमुक राजा के घर हुआ था। अथवा हमारे प्रधानमंत्री का जन्म अमुक दिन हुआ था। जन्म के समय न तो दशरथ राजा थे और न जन्म के समय हमारे आज के प्रधानमंत्री भी उस समय प्रधानमंत्री ही थे। हम कहें कुछ भी, पर यह बात हम भलीभाँति जानते हैं। पर न मालूम तीर्थंकर और भगवान के संदर्भ में क्यों भूल जाते हैं और उन्हें जन्म से ही भगवान या तीर्थंकर मानने लगते हैं, जिससे बहुत बड़ी सैद्धान्तिक भूल हो जाती है। इस पर कुछ लोग कहते हैं कि आप तो कहते हैं कि स्वभाव से तो सभी भगवान हैं, पशु भी परमेश्वर हैं; अत: हम उन्हें स्वभाव से भगवान मानकर भगवान शब्द का प्रयोग करें तो क्या आपत्ति है ? कुछ नहीं, पर इसप्रकार तो उन्हें ही क्यों, आप स्वयं को भी भगवान शब्द का प्रयोग कर सकते हैं; क्योंकि स्वभाव से तो सभी भगवान ही हैं। वस्तुतः बात ऐसी है कि शब्दों का व्यावहारिक प्रयोग स्वभाव के आधार पर नहीं, पर्याय के आधार पर होता है। जब वे पर्याय में भी सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान बन जायेंगे, तभी उन्हें भगवान कहा जा सकता है। यदि अभी कहते हैं तो वह कथन भाविनैगमनय का ही होगा। समझने की बात तो यह है कि राजा ऋषभदेव ने दीक्षा भगवान बनने के लिए ही तो ली थी। यदि वे भगवान थे ही तो दीक्षा की क्या आवश्यकता

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