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पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव
आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं ।
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"आप्तेनोच्छिन्न दोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥
जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितापदेशी हो; वही सच्चा देव (भगवान) है, आप्त है; क्योंकि इसके बिना आप्तता संभव नहीं है । "
पूर्ण वीतरागता, सर्वज्ञता और पूर्ण हितोपदेशीपना तो तेरहवें गुणस्थान में ही प्रकट होता है तथा तीर्थंकर प्रकृति का उदय भी तेरहवें गुणस्थान में ही होता है । कोई भी प्रकृति उदय में आने से पूर्व कार्यकारी नहीं होती। सत्ता में तो किसी मनुष्य के नरकायु भी पड़ी रह सकती है, पर उसे नारकी तो नहीं माना जा सकता; क्योंकि उसे नारकी मानने पर मनुष्य नहीं माना जा सकेगा। ऐसा होने पर भी भाविनैगमनय से उसे नारकी भी कह दिया जाता है; उसीप्रकार भाविनैगमनय से ही जन्म के समय भी इन्हें तीर्थंकर और भगवान कह दिया जाता है।
यदि उन्हें जन्म से ही भगवान माना जाएगा तो फिर भगवान के जन्म के समान भगवान की शादी भी माननी पड़ेगी, जबकि भगवान के जो सर्वोत्कृष्ट भक्त हैं, ऐसे मुनिराज भी ब्रह्मचारी होते हैं तो फिर भगवान शादीशुदा कैसे हो सकते हैं ?
व्यवहार से हम कुछ भी कहें, पर निश्चय से तो सभी को यही जाननामानना चाहिए कि भगवत्ता तो केवलज्ञान होने पर ही प्रकट होती है । हमें वचनों का व्यवहार भी सावधानी से करना चाहिए, जिससे व्यर्थ के भ्रम न फैलें । हमारे प्रतिष्ठाचार्यों की बात आप ध्यान से सुनेंगे तो वे यही कहते मिलेंगे कि तीर्थंकर का जीव माँ के गर्भ में आया, बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम ऋषभ रखा गया, राजकुमार ऋषभ की शादी हुई, युवराज ऋषभ का राजतिलक हुआ, महाराज ऋषभ ने दीक्षा ली, मुनिराज ऋषभ को केवलज्ञान हुआ एवं भगवान ऋषभदेव को मोक्ष की प्राप्ति हुई ।