Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 8
________________ " २६ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः रूपमें पीछे (१-१५४) आ चुका है। ये सब ऐसे हेतु हैं कि जिनसे पिछले प्रकरणों के साथ इस प्रकरणकी समानकर्तृकताका अनुमान होता है। शरीराष्टकका प्रथम श्लोक ( दुर्गन्धाशुचि आदि) पीछे अनित्यपञ्चाशत् ( ३-३) में आ चुका है। इसके अतिरिक गुरुमक्तिको प्रदर्शित करनेवाला वाक्य (मे झदि गुरुवचनं चेदस्ति तसत्त्वदर्शि-५) यहां भी उपलब्ध होता है । इससे यह प्रकरण मी उक्त मुनि पद्मनन्दीके द्वारा ही रचा गया प्रतीत होता है। अब ब्रह्मचर्याष्टक नामका अन्तिम प्रकरण ही शेष रहता है । सो यहां यद्यपि ग्रन्थकारने अपने नामका निर्देश तो नहीं किया है, फिर भी इस प्रकरणकी रचनाशैली पूर्व प्रकरणोंके ही समान है। इस प्रकरणका अन्तिम श्लोक यह है युवतिसंगविवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजन भणितं मया । सुरतरागसमुद्गता जनाः कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि ॥ यहां पूर्व पद्धतिके समान अन्धकारने 'युवति गनिनन अधम ( ब्रह्मचर्गक ) के रचे जानेका उल्लेख किया है। साथमें उन्होंने अपने मुनिपदका निर्देश करके अपने ऊपर क्रोध न करनेके लिये विषयानुरागी जनोंसे प्रेरणा भी की है। यहां यह स्मरण रखने की बात है कि श्री पद्मनन्दीने कितने ही स्थलों में अपने नामके साथ 'मुनि' पदका प्रयोग किया है। इससे इस प्रकरणके भी उनके द्वारा रचे जानेमें कोई बाधा नहीं दिखती अन्यके अन्तर्गत ऋषमस्तोत्र ( १३ ) और जिनदर्शनस्तवन (१४) ये दो प्रकरण ऐसे हैं जो प्राकृतमें रचे गये हैं । इससे किसीको यह शंका हो सकती है कि शायद ये दोनों प्रकरण किसी अन्य पद्मनन्दीके द्वारा स्वे गये होंगे। परन्तु उनकी रचनापद्धति और भावभंगीको देखते हुए इस सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं दिखता । उदाहरणके लिये इस स्तोत्रमें यह गाथा आयी है-- विप्पडिवज्जइ जो तुह गिराए मइ-सुइबलेण केवलियो । वरदिद्विदिहमहअंतपक्खिगणणे वि सो अंधो ॥ ३४ ॥ इसकी तुलना निन्न श्लोकसे कीजिये यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिया तत्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या । खे पत्रिणां विचरतां सुहशेक्षिताना संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥ १-१२५ ॥ इन दोनों पद्योंका अभिप्राय समान है, उसमें कुछ भी भेद नहीं है । इसीलिये भाषाभेदके होनेपर मी इसे उन्हीं पद्मनन्दीके द्वारा रचा गया समझना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र ( २३-३४ ) में आठ प्रातिहार्योंके आश्रयसे जैसे भगवान् आदिनाथकी स्तुति की गई है वैसे ही शान्तिनाथ स्तोत्रमें उनके आश्रयसे शान्तिनाथ जिनेन्द्रकी भी स्तुति की गई है। ऋषभजिनस्तोत्रके 'जत्थ जिण ते वि जाया सुरगुरुपमहा कई कुंठा (३६) इस वाक्यकी समानता भी सरस्वतीस्तोत्रके निम्न वाक्यके साथ दर्शनीय हैकुष्ठास्तेऽपि बृहस्पतिप्रभृतयो यस्मिन् भवन्ति भुवम् (१५-३१) । इसी प्रकार ऋषभस्तोत्रकी तीसरी गाथा और जिनदर्शनस्तवनकी सोलहवीं गाथाके 'चम्मच्छिणा वि दिद्वे' और 'चम्ममएणच्छिणा नि दि?'

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