________________ 41 मन्त्रिसमुद्देशः मव्यभिचारिणमधीताखिलव्यवहारतन्त्रमस्त्रज्ञमशेषोपधिविशुद्धं मन्त्रिणं कुर्वीत // 5 // ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य में से किसी एक को जो अपने देश का हो, आचार व्यवहार और वंश से विशुद्ध हो, व्यसनी न हो, व्यभिचारी न हो, समस्त व्यवहार शास्त्र अर्थात् नीति और धर्मशास्त्र को पढ़ा हुआ हो, अस्त्र-शस्त्र जानने वाला हो और समस्त छल-छद्म से रहित हो, ऐसे व्यक्ति को मन्त्री बनाना चाहिये। __ स्वदेश प्रेम का गौरव - : समस्तपक्षपातेषु स्वदेशपक्षपातो महान् // 6 // समस्त पक्षपातों में अपने देशका पक्षपात महान् है / अर्थात् मन्त्री अपने देश का हो इसका सर्वप्रथम ध्यान रखना चाहिये / .दुराचार निन्दाविषनिषेक इव दुराचारः सर्वान गुणान् दूषयति // 7 // विष सिञ्चन की भांति दुराचार सव गुणों को दूषित कर देता है। ___ अकुलीन मन्त्री का दोषदुष्परिजनो मोहेन कुतोऽप्यपकृत्य न जुगुप्सते // 8 // अकुलोन मन्त्री राजा का घृणित अपराध करके मूखता वश लज्जा का अनुभव नहीं करता, ( परिजन का अर्थ यहां नौकर चाकर न करके प्रसङ्ग वश कुल किया गया है)। व्यसनी मन्त्री से राजा की क्षतिसव्यसनसचिवो राजा आरूढव्यालगज इव नासुलभोऽपायः // 6 // व्यसन शील मन्त्री वाले राजा का नाश दुष्ट हाथी पर चढ़ने वाले की तरह दुर्लभ नहीं होता अर्थात् शीघ्र ही संभव होता है। _ . किं तेन केनापि यो विपदि नोपतिष्ठते / / 10 / / जो विपत्ति में सहायक नहीं होता उससे क्या लाभ / / भोज्येऽसम्मतोऽपि हि सुलभो लोकः // 11 // भोजन के लिये तो अनिमन्त्रित लोग भी सुलभ हो जाते हैं / अर्थात् सुख के साथी बिना ढूढ़े भी मिल जाते हैं, पर दुःख के साथी नहीं होते। (किं तस्य भक्त्या यो न वेत्ति स्वामिनो हितोपायमहितप्रतीकारं वा // 12 // जो मन्त्री रोजा की भलाई का और बुराई को दूर करने का उपाय न जानता हो उसकी भक्ति से क्या लाभ /