________________ मन्त्रिसमुद्देशः 61 (कन्या के समान वाणी भी पराया धन है-दूसरों के लिये है-उसे यदि निरर्थक प्रकाशित किया जाता है-व्यर्थ वचन बोला जाता है तो जिस प्रकार निरर्थक अर्थात् निधन अथवा अकर्मण्य या नपुंसक को दी गई कन्या पिता को श्राप देती है उसी प्रकार बिना प्रयोजन की वाणी वक्ता को श्राप देती है। व्यर्थ का वचन नहीं बोलना चाहिए।) मूर्ख के समक्ष हितोपदेश अनावश्यक(तत्र युक्तभप्युक्तमयुक्तसमं यत्र न विशेषज्ञः // 158 // ) जहां जिस बात के विशेष जानकार न हों वहां कही गई ठीक बात भी अयुक्त-अनुचित लगती है। (स खलु पिशाचकी वातकी वा यः परेऽथिनि वाचमुदीरयति // 15 // 'उस वक्ता को भूत लगा हुआ अथवा वातव्याधि से युक्त समझना चाहिए जो न सुनने वाले को अपनी बात सुनाता है।) इन दो सूत्रों का माशय है कि मूर्ख या हठी को उपदेश न दे। (विध्यायतः प्रदीपस्येव नयहीनस्य वृद्धिः / / 160 // ) नीति के अनुसार न चलने वाले की श्री वृद्धि बुझते हुए दीपक को लो के समान है / जिस प्रकार बुझते समय दीपक एक बार तेज प्रकाश कर शीघ्र बुझ जाता है उसी प्रकार नीति का पालन न करने वाले की बढ़ती कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाती है। कृतघ्न सेवक की दशाजीवोत्सर्गः स्वामिपदमभिलषतामेव // 161 // जो सेवक अपने स्वामी के ही पद की कामना करने लगे उसे प्राणत्याग करना पड़ता है। . दुष्टों के प्रति नीति. . (बहुदोषेषु क्षणदुःखप्रदोपायोऽनुग्रह एव / / 162 // बहुत दोष वाले व्यक्तियों को क्षण भरके लिये दुःखप्रद अर्थात् मृत्युदण्ड आदि राजा के लिये अनुग्रह हो है अतः इससे कण्टक दूर होकर राज्य वृद्धि होगी। कृत्या का लक्षणस्वामिदोषस्वदोषाभ्यामुपहतवृत्तयः क्रुद्ध लुब्ध-भीतावमानिताः कृत्याः // 163 // - स्वामी के अथवा अपने दोषों के कारण जिन की वृद्धि--जीविका के साधन-नष्ट हो गये हैं ऐसे क्रोधी लोभी, भयभीत और अपमानित व्यक्ति