Book Title: Nitivakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Ramchandra Malviya
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 208
________________ 165 प्रकीर्णसमुद्देशः जब कि नीतिज्ञ पुरुष फूल के द्वारा भी युद्ध नहीं करना चाहते तब शस्त्र के द्वारा युद्ध की तो चर्चा ही क्या है ! स प्रभुर्यो बहून् बिभत्ति किमजनतरोः 'फलसम्पदा या न भवति परेषामुपभोग्या।। 31 / / प्रभु वही है जो बहुतों का भरण-पोषण करे / अर्जुन वृक्ष के प्रचुर फल से क्या लाभ जो कि किसी के काम आने लायक ही नहीं होता। (मार्गपादप इव स त्यागी यः सहते सर्वेषां संबाधाम् // 32 // जो पुरुष सब के द्वारा दिये गये क्लेशों को सह लेता है वह मार्ग में लगे पेड़ के समान त्यागी है / मार्ग में लगे पेड़ से सभी मनुष्य दातून, लकड़ी, पत्ती आदि लेते रहते हैं और वह फिर भी हरा भरा खड़ा रहता है इसी प्रकार वास्तविक त्याग उसी का है जो कोई कुछ भी क्यों न करे पर वह शान्त ही रहे। पर्वता इव रांजानो दूरतः सुन्दरालोकाः // 33 // ) पर्वत की शोभा जिस प्रकार दूर से ही अच्छी लगती है उसीप्रकार राजपद का सौन्दयं भी दूर से ही शोभा देता है उसके निकट सम्पर्क में आने से अनेक कष्ट भी सहने पड़ते हैं / वार्तारमणीयः सर्वोऽपि देशः // 34 // बात-चीत में सभी अन्य देश अच्छे लगते हैं वस्तुत: परदेश में क्लेश होता ही हैं अतः अपना देश छोड़कर अन्यत्र न जाना चाहिए। अधनस्याबान्धवस्य च जनस्य मनुष्यवत्यपि भूमिर्भवति महाटवी / / 35 / / निधन और बन्धुहीन व्यक्ति के लिये मनुष्यों से भरी हुई भी यह पृथ्वी महान् अरण्य के समान लगती है। (श्रीमतो हरण्यान्यपि राजधानी // 36 // ) श्रीमानों के लिये जंगल भी राजधानी के समान ही सुखद बन जाता है। (सर्वस्याप्यासन्नविनाशस्य भवति प्रायेण मतिविपर्यस्ता // 35) जिसका विनाश निकट होता है उसकी बुद्धि विपरीत हो जाती है। (पुण्यवतः पुरुषस्य न क्वचिदप्यस्ति दौःस्थ्यम् // 3811) पुण्यात्मा पुरुष की कहीं भी दुर्गति नहीं होती। (दैवानुकूलः कां सम्पदं न करोति विघटयति वा विपदम् // 16 // ) जब देव अपने अनुकूल होता है तब कौन सी सम्पत्ति नहीं सुलभ हो जाती और कोन विपत्ति दूर नहीं हो जाती।

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