Book Title: Nitivakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Ramchandra Malviya
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 209
________________ 166 नीतिवाक्यामृतम् (असूयकः पिशुनः, कृतघ्नो दीर्घरोष इति कर्मचाण्डालाः // 40 // सदा दूसरों के गुणों में दोष निकालने बाला निन्दक पुरुष, चुगलखोर, कृतघ्न और अपने मन में किसी के प्रति बहुत दिनों तक क्रोध को बनाए . रखने वाला ये चार अपने कर्मों से चाण्डाल हैं और पांचवां तो जाति से होता है। (ओरसः, क्षेत्रजा, दत्तः, कृत्रिमो, गूढात्पन्नोऽपविद्ध एते षट् पुत्रा दायादाः पिण्डदाश्च / / 41 / / अपनी विवाहिता पत्नी से उत्पन्न औरस पुत्र, पराई स्त्री से उत्पन्न क्षेत्रज़, बन्धुबान्धवों से दिया गया दतक पुत्र, युद्ध आदि के द्वारा जीता गया अथवा किसी संकट से मुक्त कर पाला-पोसा गया कृत्रिम पुत्र, चोरी से पैदा किया गया गूढोत्पन्न पुत्र और पति के परदेश चले जाने या मर जाने के बाद उत्पन्न अपविद्ध ये छह प्रकार के पुत्र अपने दायाद और पिण्डदाता होते हैं। देशकालकुलापत्यत्रोसमापेक्षो दायादविभागोऽन्यत्र यतिराजकुलाभ्याम् // 42 // सन्यासियों और राज-परिवार को छोड़कर दायाद का निर्णय देश, समय वंश, सन्तान और स्त्री की दृष्टि से किया जाता है। अर्थात् सम्पत्ति के बंटवारे के विषय में विभिन्न देशों में विभिन्न नियम और मत प्रचलित हैं। (अतिपरिचयः कस्यावा न जनयति // 43 // ) अत्यधिक परिचय से किसका अनादर नहीं होता। (भृत्यापराचे स्वामिनो दण्डो यदि भृत्यं न मुञ्चति // 44 // भृत्य को यदि स्वामी छोड़ नहीं देता तो भृत्य के अपराध से स्वामी को दण्ड मिलता है। (अलं महत्तया समुद्रस्य यः लघु शिरसा वहत्यधस्ताच्च नयति गुरून् / / 45 // समुद्र की महत्ता व्यर्थ हैं जो कि हलकी सारहीन वस्तु को ऊपर तैरने देता है और गुरु अर्थात् सारयुक्त ठोस चीज को डुबा देता है। (रतिमन्त्राहारकालेषु न कमप्युपसेवेत / / 46 // मैथुन कर्म, मन्त्रणा, और भोजन के समय किसी को समीप न रहने दे / ) सिष्ठ परिचितेष्वपि तिर्यक्षु विश्वासं न गच्छेत् // 47 // बहुत हिल-मिल गये हों तब भी तिर्यग् योनि के पशु-पक्षी आदि पर विश्वास नहीं करना चाहिए। / मत्तवारणारोहिणो जीवितव्ये सन्देहो निश्चितश्चापायः // 48 )

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