________________ 152 नीतिवाक्यामृतम् व्यसनिनो यथा अभिसारिकासु सुखं न तथा अर्थवतीषु // 40 // लम्पट पुरुष को व्यभिचारिणी अभिसारिका से जैसा सुख मिलता है वैसा वेश्या से नहीं। महान् धन-व्ययस्तदिच्छानुवर्त्तनं दैन्यं चार्थवतीषु // 41 // वेश्या के यहां जाने में बहुत धन का व्यय करना पड़ता है, उसकी इच्छा का अनुसरण करना होता है और विनम्र याचक बनना होता हैं। __आस्तरणं, कम्बलो, जीवधनं, गदभः, परिग्रहो, वोढा, सर्वकर्माणश्च भृत्या इति कस्य नाम न सुखावहानि / / 42 // .. बिस्तर, कम्बल, पशुधन-गायबल आदि, गदह।, स्त्री, बोझ ढोने वाला और सब प्रकार का काम करनेवाला सेवक ये किसके लिये सुखदायक नहीं होते ! अर्थात् इनसे सबको सुख मिलता है। . __ न दारिद्रयात् परं पुरुपस्य लाञ्छनमस्ति यत्संगेन सर्वे गुणा निष्फलतां यान्ति / / 43 / / पुरुष के लिये दरिद्रता से बढ़कर दूसरा कोई कलंक नही है, जिसके संयोग / से उसके सब गुण निष्फल हो जाते हैं। (अलब्धार्थोऽपि लोको धनिनो भाण्डो भवति / / 44 // ) धन न मिलने पर भी लोग धनी पुरुष के सहायक हो जाते हैं / (धनिनो यतयोऽपि चाटुकाराः / / 45 / / ) सन्यासी भी धनी की चाटुकारिता-खुशामद करते हैं। (न रत्नहिरण्यपूताज्जलात् परं पावनमस्ति / / 46 / / ) रस्न और सुवर्ण से पवित्र किये गये जल से बढ़कर दूसरा कोई पवित्र करनेवाला पदार्थ नहीं है। (स्वयं मेध्या आपो वह्नितप्ता विशेषतः // 47 // जल स्वयं पवित्र है किन्तु अग्नि पर गरम किया गया जल विशेषरूप से पवित्र हैं। (स एवोत्सवो यत्र बन्दिमोक्षो दीनोद्धरणं च / / 48 / / उत्सव वही हैं जिस में बन्दी छोड़े जायें और दीनों का उद्धार किया जाय। तानि पर्वाणि येष्वतिथिपरिजनयोः प्रकामं सन्तर्पणम् // 46 // पर्व, त्योहार के वही दिन हैं जिनमें अतिथि और सेवकगण खिलापिला. कर पूर्ण रूप से सन्तुष्ट किये जायं। (तास्तिथयो यासु नाधर्माचरणम // 50) प्रतिपद आदि तिथियों में मनुष्य के लिये वही तिथि तिथि है जिसमें वह किसी प्रकार का अधर्म का कार्य न करे /