Book Title: Nitivakyamrutam
Author(s): Somdevsuri, Ramchandra Malviya
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 186
________________ षाड्गुण्यसमुद्देशः 173 (निरनुबन्धमर्थानुबन्धं चार्थमनुगृह्णीयात् // 10 // राजा प्रजा से कर आदि के रूप में धन का ग्रहण इस प्रकार करे जिससे प्रजा को क्लेश न हो और उसकी ऐसी आर्थिक क्षति न हो कि भविष्य में आयका स्रोत ही बन्द हो जाय।) (नासावर्थो धनाय यत्रायत्यां महानर्थानुबन्धः / / 101 / / ) राजा के लिये वह धन धन नहीं है जिससे भविष्य में उसकी महान् आर्थिक क्षति हो। (लाभस्त्रिविधो नवो भूतपूर्वः पैञ्यश्च // 102 // लाभ तीन प्रकार का होता है : सर्वथा मबीन अर्थात् खेती व्यापार आदि से प्राप्त, भूतपूर्व जैसे कई वर्षों का बचा हुआ अन्न अथवा व्यय से बचाकर एकत्र को गई पूंजी आदि और पैतृक अर्थात् जिसे पिता पितामह आदि छोड़ गये हों। [इति षाड्गुण्यसमुद्देशः] 30. युद्धसमुद्देशः ( स किं मन्त्री मित्रं वा यः प्रथममेव युद्धोद्योगं भूमित्यागं चोपदि. शति, स्वामिनः सम्पादयति च महान्तमनर्थसंशयम् // 1 // वह मन्त्री अथवा मित्र अच्छा नहीं है जो किसी विवाद के प्रारम्भ में ही राजा को अन्य कोई कल्याण-मार्ग न बताकर युद्ध का अथवा देशत्याग का उपदेश देता है और इस प्रकार उसे भहान् अनर्थ के संशय में डाल देता है / (संग्रामे कोनामात्मवानादावेव स्वामिनं प्राणसन्देहतुलायामारोपयति // 2 // कौन ऐसा विचारशील व्यक्ति होगा जो रण में प्रारम्भ में ही अपने स्वामी के प्राणों को संशय की तुला पर आरोपित करेगा ? अर्थात् अमात्य को प्रारम्भ में सन्धि आदि का उपक्रम कर असफल होने पर ही युद्ध के लिए राजा को तत्पर करना चाहिए . (भूभ्यर्थनृपाणां नयो विक्रमश्च न भूमित्यागाय // 3 // ) राजा की समस्त नीति और उसका समस्त पराक्रम भूमि अर्थात् देश की रक्षा और वृद्धि के लिये होता है न कि देशत्यांग के लिये। (बुद्धियुद्धेन परं जेतुमशक्तः शस्त्रयुद्धमुपक्रमेत् // 4 // ) .. जब बुद्धि बल से शत्रु को जीतने में असमर्थ हो तब शस्वयुद्ध का उपक्रम करे। (न तथेषवः प्रभवन्ति यथा प्रज्ञावतां प्रज्ञाः // 5 //

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