________________ (184 नीतिवाक्यामृतम् .उसके अमात्य आदि उसकी ठीक सेवा नहीं करते, क्योंकि उनको यह अनुभव होता है कि यह हमारे न रहने पर हमारे बच्चों के साथ भी ऐसा ही कृतघ्नता का व्यवहार करेगा।) (स्वामिनः पुरःसरणं युद्धेऽश्वमेधसमम् / / 64 // युद्ध में स्वामी के आगे होना अश्वमेघ यज्ञ करने के समान पुण्यदायक है।) . (युधि स्वामिनं परित्यजतो नास्तीहामुत्र च कुशलम् / / 15) युद्ध में स्वामी का साथ छोड़नेवाले का इस लोक और परलोक में भी कल्याण नहीं होता। विग्रहायोच्चलितस्याई बलं सर्वदा सन्नद्धमासीत, सेनापतिः प्रयाणमावासं च कुर्वीत, चतुर्दिशमनीकान्यदूरेण सञ्चरेयुस्तिष्ठे. युश्च / / 66 // - राजा जब युद्ध के लिये प्रस्थान करे तब आधी सेना से तो वह व्यावहा. रिक रूप में युद्ध करे ओर उसकी आधी सेना सदा तैयार रहे। उसका सेना पति युद्ध में जाय भी और एक स्थान पर आवास बनाकर-डेरा डालकर अवसर के अनुकूल वास भी करे, और शत्र के चारों और अपनी सेनायें घूमती रहें और टिकी रहें। - धूमाग्निरजोविषाणध्वनिव्याजेनाटविकाः प्रणिधयः परबलान्यागच्छन्ति इति, निवेदयेयुः / / 67 / / विजिगीषु राजा के गुप्तचर सदा जङ्गलों में घूमते रहें और 'शत्रुसेना आ रही है। इसका निवेदन धूम, अग्नि तथा धूलि के प्रदर्शन से शृंग ध्वनि के व्याज से करे / पुरुषप्रमाणोत्सेधमबहुजनविनिवेशनाचरणापसरणयुक्तमग्रतो महामण्डपावकाशं च तदंगमध्यस्य सर्वदाऽऽस्थानं दद्यात् / / 17 // विजिगीषु को अपना आस्थान अर्थात् पड़ाव ऐसी जगह डालना चाहिए जो पुरुष प्रमाण अर्थात् पांच-छह फुट ऊंचा हो, जहाँ बहुत अधिक नहीं किन्तु थोड़े आदमी चल फिर सकें और आ जा सकें, उसके आगे मण्डप के लिये विस्तृत स्थान हो-राणा सदा इस प्रकार के पड़ाव के मध्य में स्थित हो।) (सर्वसाधारणभूमिकं तिष्ठतो नास्ति शरीररक्षा / / 6D . जहाँ सर्वसाधारण का आना जाना हो ऐसे स्थान पर ठहरने से शरीर रक्षा में संशय रहता है। (भूचरो दोलाचरस्तुरङ्गचरो वा न कदाचित् परभूमौ प्रविशेत् // 10 //