________________ * 124 नीतिवाक्यामृतम् उपभोग करने में महान् अनर्थ की संभावना है। इससे उसके अन्य प्रेमी ईर्ष्यालु होकर वधादि उपद्रव कर सकते हैं। वेश्यासक्तिः प्राणार्थहानि कस्य न करोति / / 46 / / वेश्या पर अत्यन्त आसक्ति करने से किसके प्राण और अर्थ की हानि नहीं होती। धनमनुभवन्ति वेश्या न पुरुषम् / / 47 // वेश्याएं धन का उपभोग करती हैं पुरुष का नहीं। (धनहीने कामदेवेऽपि न प्रीतिं बध्नन्ति वेश्याः ||) .. कामदेव के समान भी न्दर व्यक्ति यदि निर्धन होता है तो उस पर वेश्या का अनुराग नहीं होता। स पुमानायतिसुखी यस्य सानुशयं वेश्यासु दानम् // 46 // वेश्याओं को पैसा रुपया देते समय जिसके हृदय में मानसिक ग्लानि और अनुताप हुआ करता है वह मनुष्य अन्त में अर्थात् भविष्य में अत्यन्त सुख का अनुभव करता है / क्योंकि ऐसा आदमी अवश्य ही किसी न किसी दिन उससे विरक्त होकर सुखी होगा। (स पशोरपि पशुः यः स्वधनेन परेषामर्थवतीं करोति वेश्याम् // 50 // वह व्यक्ति पशु से भी बढ़कर है जो अपने धन से वेश्या को दूसरे के लिये धनाढ्य बनाता है / वेश्या का कोई निश्चित उत्तराधिकारी नहीं होता जिससे उसे प्राप्त प्रचुर धन को इधर उधर का नीच व्यक्ति ही प्राप्त करता है। इस स्थिति में यदि कोई व्यक्ति वेश्या को धन देता है तो वह पशु से भी बढ़कर अविवेकी है क्योंकि वह ऐसी जगह धन फेंक रहा है जहां से उसे कोई सहायता नहीं मिल सकती / अपनी पत्नी को दिया गया धन सङ्कट आ पड़ने पर सहायक होता है अथवा अन्य कामों में व्यय करने से यश आदि होता है पर वेश्या को दिया गया धन तो इहलोक परलोक दोनों को बिगाड़ने वाला है। आचित्तविभ्रान्तेर्वेश्यापरिग्रहः श्रेयान् // 51 // धेश्या का सेवन चित्त की चञ्चलता मात्र दूर करने तक ही सीमित रखना चाहिए। . यहां श्राचार्य प्रवर का आशय यह है कि राजा को यदि कभी किसी कारणवश किसी वेश्या पर अनुरक्ति हो तो उससे समागम कर पुनः उसका त्याग देना ही कल्याणकर है। (सुरक्षितापि वेश्या स्वां प्रकृति न मुञ्चति // 52 //