________________ 142 नीतिवाक्यामृतम् जिसने स्वयम् उद्योग करके किसी प्रकार की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त की वह यदि अपने उच्च वंश में जन्म लेने के अहंकार का प्रदर्शन करता है तो सबकी अप्रतिष्ठा का पात्र होता है। (आतः सर्वोऽपि भवति धर्मबुद्धिः // 5 // दुखी होने पर सभी व्यक्ति धामिकविचार वाले बन जाते हैं। (स नीरोगो यः स्वयं धर्माय समीहते / / 6 // ) नीरोग वह व्यक्ति है जो बिना किसी कारण के ही धर्म-बुद्धि वाला हो / (व्याधिग्रस्तस्य ऋते धैर्यान्न परमौषधमस्ति // 7 // ). व्याधि से पीड़ित व्यक्ति के लिये धर्य के अतिरिक्त दुसरी कोई श्रेष्ठ औषध नहीं है। / स महाभागो यस्य न दुरपवादोपहतं जन्म // 8 // भाग्यशाली वह है जिसका जीवन किसी अपयश से कलंकित न हो। पराधीनेष्वर्थेषु स्वोत्कर्षसंभावनं मन्दमतीनाम् // 6 // पराधीन वस्तुओं से अपने उत्कर्ष की आशा करना मूर्खता है। (न भयेषु विषादः प्रतीकारः किन्तु धैर्यावलम्बनम् / / 10 // किसी प्रकार के सङ्कट से भय उत्पन्न होने पर दुखी होकर बैठना उस भय को दूर करने का उपाय नहीं है, किन्तु धर्य धारण करना ही उसका श्रेष्ठ प्रतीकार है। से किं धन्वी तपस्वी वा यो रणे मरणे शरसन्धाने मनःसमाधाने च मुह्यति / / 11 / / वह कैसा धनुर्धारी अथवा तपस्वी है जो रण में, मरण में, बाण-चढ़ाने में और मन को समझाने में मोह में- अज्ञान में-पड़ जाता है ? (कृते प्रतिकृतमकुर्वतो नैहिकफलमस्ति नामुत्रिकञ्च / / 12) उपकारी के प्रति प्रत्युपकार न करनेवाले को इस लोक और परलोक में भी कोई फल प्राप्त नहीं होता। (शत्रुणाऽपि सूक्तमुक्तं न दूषयितव्यम् / / 13 // शत्रु के द्वारा भी कही गई उत्तम उक्ति में दोष न लगाना चाहिए / ( कलहजननम् अप्रीत्युत्पादनं च दुजनानां धर्मो न सज्जनानाम् // 14 // लड़ाई लगाना, बैर कराना दुर्जनों का कार्य है सज्जनों का नहीं। (श्रीन तस्याभिमुखी यो लब्धार्थमात्रेण सन्तुष्टः / / 14 // भाग्यवश जो मिल गया उसीसे सन्तुष्ट हो जानेवाले व्यक्ति के पास लक्ष्मी नहीं आती। (तस्य कुतो वंशवृद्धिर्यो न प्रशमयति वैरानुबन्धनम् // 16 //