Book Title: Navsadbhava Padartha Nirnay Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 6
________________ ति का उपाय नहीं है। हे मित्र ! मत भ्रमो.। संसार से मिलती झूठी प्ररूपना करने से पंचइन्द्रियों के विषय सेने सेवाने से और दूसरे जीवों का शारीरिक सुख इच्छने से मोक्षाभिलाषी कभी नही हो सकते, संसार में संसारी जीवों को खाना खिलाने से प्रा. त्मकल्याण नहीं होता । पृथ्वी पानी वायु अग्नि वनस्पति के जीवों को मार कर अस जीवों को साता उपजाने से धर्म कदापि नहीं होता है । इस ध्वंस शील शरीर का मोह छोड कर तप श्रझीकार करो, शरीरस्थ महा पुरुप के साथ जगदात्मा के जिस नित्य सम्बन्ध को भूलकर माया के इन्द्रजाल में फंसा हुवा है, और सङ्कल्प विकल्प के अनर्थ में लहा लोट होता है उस सम्बन्ध को ध्रुवज्ञान से प्रत्यक्ष कर उसी शान में लवलीन रहो । वि. चार करो हम सच्चिदानन्द प्रानन्दस्वरूप शुद्ध स्वरूप अजर अभर है, और यह शरीर अनित्य है, शरीर अलग है और हम अलग हैं, इस पुद्रलमयी शरीर का और हमारा संग अनादि काल से चलाभाता है, इस की रक्षा करने से ही हम इस से अलग होके सिद्धात्मा नहीं बनते, इस कुटुम्ब और दुखी जीवों के मोहजाल में फंसकर ही मोह अनुकम्पा करने से चतुरगति संसारमयी समुद्र में गोता लगा रहे हैं। प्यारे ! तुम दुखियों को देखकर दुखी और सुखियों को देखकर सुखी क्यों होते हो, भैय्या तुम्हारे सामने तुम्हारा पिता, तुम्हारी माता, तुम्हारी स्त्री, तुम्हारे पुत्र, पौत्र, तुम्होर नांती, गोती, तुम्हारे मित्र, मित्र, सब चले चलते हैं, और चले जायगे, इन किसी का मोह मत करो, निर्मोही हो के श्री वीतरागप्ररूपिता धर्मानुसार प्रवतो, तव दुःखों से छुटकारा पाओगे। सर्व मतों में सब अन्यों में सव शास्त्रों में अहिंसा धर्म ही मुख्य है । हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना, मैथुन सेना, और परिग्रह रखना सर्वथा वर्जित है तो जैन मति में तो उपरोक्त पञ्च आश्रवद्वार सेना सेवाना और अनुमोदना मन वचन काया करके सवाश निषेध है। इसलिए सदोगुका कहना है, देवानुप्रियो! जागो २, अनादि काल से सोते सोते निजगुणों को भूलगये क्या अंब सोते ही रहोगे ? भालस्य छोडो, प्रमाद तजो, पाप हरो, जियादह नहीं तो बन सके उत्तना ही धर्म करो,Page Navigation
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